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पुराण
॥४३॥
हीकी स्त्री होय तव केकई इनकी माता सर्वकलामें प्रवीण भरत के चित्त का अभिप्राय जान पति के कान में कहतीभई हे नाथ भरतका मन कछुइक विलंषा दीखेहै ऐसा करो जो यह विरक्त न होय इस जनक के भाई कनक के राणी सुप्रभा उसके पुत्री लोकसुन्दरी है सो स्वयम्बर मण्डप की विधि फिर करावो और वह कन्या भरतके कण्ठमें वरमाला डारे तो यह प्रसन्न होय तब दशरथ इसकी बात प्रमाण कर कनकके कान पहूंचाई तब कनक दशरथकी आज्ञा प्रमाणकर जे राजा गयेथे सो पीछे बुलाये यथायोग् स्थानपर तिष्ठे सबजे भूपति वेई भये नक्षत्रों के समूह उनमें तिष्ठता जो भरत रूप चन्द्रमा उसे कनक की पुत्री लोक सुन्दरी रूप शुक्लपक्ष की रात्री सो महा अनुराग से वरती भई मनकी अनुरागता रूप मालातो पहिले अवलोकन करतेही डारीथी फिर लोकाचार मात्र सुमन कहिए पुष्प उनकी वरमालाभी कंठ में | डारी कैसी है कनककी पुत्री कनक समान है प्रभा जिसकी जैसे सुभदाने भरतचक्रवतोंको वराथा तैसे यह दशरथ के पुत्र भरत को वरतीभई गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हे श्रेणिक कर्मोंकी विचित्रता देख भरत जैसे विरक्त चित्त राज कन्यापर मोहित भये और सब राजा विलखे होय अपने अपने स्थानक गए जिसने जैसा कर्म उपार्जा होय वैसाही फल पावेहे किसीके द्रव्यको दूसरा चाहनेवाला न पावे ॥
- अथानन्तर पिथिलापुरीमें सीता और लोकसुन्दरीके विवाहका परमउत्साहभया कैसीहै मिथिलापुरी ध्वजा और तोरणों के समूह से मण्डित है और महा सुगन्ध की भरीहे शंख आदि वादित्रों के समूह से पूरितह श्रीरामका और भरतका विवाह महाउत्सव सहित भयो द्रव्यसे भिक्षकलोकपूर्णभये जे राजा विवाह का उत्सव देखनेको रहेथे दरारथ और जनक कनक दोनों भाई से अति सन्मान पाय अपने २ स्थानक
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