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॥४३॥
पत्र दल होय तिससे अधिक है कांति जिनकी और जैसा काम का वाण तीक्ष्ण होय तैसे तीक्षण हैं। | रोमांचकर संयुक्त सीता ने मनकी वृत्ति रूपमालो तो प्रथम देखतेही इनकी ओर प्रेगयी फिर लोका
चार निमित्त हाथमें रत्नमाला लेकर श्रीराम के गले में डारी लज्जो से नमीभूत हे मुख जिसका जैसे जिन धर्म के निकट जीव दया तिष्ठे तैसे राम के निकट सीता प्राय तिछी श्रीराम अति सुन्दर थे सो | इसके समीप से अत्यन्त सुन्दर भासते भए इन दोनों के रूपका दृष्टान्त देनेमें न पावें और लक्ष्मण दूजा धनुष सागरावर्त क्षोभको प्राय भयो जो समुद्र उस समान है शब्द जिसका उसे चढ़ाय सेंचतेभए सो पृथिवी कम्पायमानभई प्राकारामें देव जयजयकार शब्द करतेभए और पुष्पवर्षा होतीभई लक्ष्मण ने धनुषको चढ़ाय खेंचकर जब बाण पर दृष्टि घरी तंब सब डरे लोकोंको भय रूप देख आप धनुष की पिणच उतार महा यिनय संयुक्त राम के निकट पाए जैसे ज्ञान के निकट वैराग्य भावे लक्ष्मण का ऐसा पराक्रम देख चन्द्रगतिका पठाया जो चन्द्रवर्द्धन विद्याधर आया था सो उसने अति प्रसन्न होय अष्टादश कन्या विद्यधरोंकी पुत्री लक्षमणको दीनी सो श्रीराम लक्षमण दोनों धनुष लेय महाविनयवन्त पितापास आए और सीताभी आई और जेते विद्याधर पाएथे सो राम लक्षमणका प्रतापदेख चन्द्रवर्धन की लार स्थनूपुर गए जाकर राजा चन्द्रगति को सर्व वृत्तान्त कहा सो सुन कर चिन्ताबान होय तिष्ठ और स्वयम्बर मण्डपमें रामके भाई भरतभी आएथे सो मनमें ऐसा विचारतेभये कि मेरा और रामलक्षमण को कुल एक और पिता एक परंतु इनकासा अद्भुत पराक्रम मेरा नहीं यह पुण्याधिकारीहें इन कैसे पुण्य । । मैंने न उपार्जे यह सीता साक्षात्लक्ष्मीकमलके भीतरेदल समानहै वर्ण जिसका राम सारिषे पुण्याधिकारी
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