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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण ।३८॥ परम पिता तिनके निकट जिनदीक्षावरी पञ्चमहाबत पांचसमति तीनगुप्तिअंगीकारकर मुकौशलमुनिनेगुरुकेसंग। बिहार किया कमल समान आरक्तजो चरण तिनसे पृथिवी को शोभायमान करते हुए बिहार करते भए और इन की माता सहदेवी अार्तध्यानकर मर के तिर्यञ्च योनि में नाहरीभई और ए पितापुत्रदोनों मुनि महाबिरक्त जिनको एकस्यानकरहना पिछले पहरादिनसे निर्जन प्रासुक स्थान देख बैठ रहें क्यों कि चतुर्मासिक में साधुवों को बिहार न करना इस लिए चतुर्मासिक जान एक स्थान वैठरहे तवदशों दिशा को श्याम करता सन्ता चातुरमासिक पृथिवी विषेप्रवरता आकाश मेघमालाके समुहसे ऐसाशोभे मानों काजलसे लिपा और कहूं एक बगुलावोंकी पंक्ति उड़ती ऐसी सो है मानों कुमुद फूल रहे हैं और ठौर ठौर कमल फूल रहे हैं जिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं मानो वर्षा कालरूप राजा के यशही गावे हैं अंजनगिरि समान महा नील अन्धकार से जगत व्याप्त हो गया मेघके गाजने से मानो चांद मूर्य डर कर छिप गए अखण्ड जलकी धारा से पृथिवी सजल हो गई और तृण उग उठे सो मानों पृथिवी हर्ष के अंकूरे घरे है और जलके प्रवाह से पृथ्वी में नीचा ऊंचा स्थल नजर न आवे और पृथ्वी विषे जल के समूह गाजे हैं और श्राकाश विषे मेघ गाजे हैं सो मानों ज्येष्ठ का समय जो बैरी उसे जीतकर गाज रहे हैं और धरती नीझरनों से शोभित भई भांति भांति की बनस्पति पृथ्वी विषे उगी उनसे पृथिवी ऐसी शोभे है मानों हरित मणिक विछोना कर राखे हैं पृथिवी विषे सर्वत्र जलही जल हो रहाहै मानों मेघही जलके भार से टुट पड़े हैं और ठौर २ इन्द्रगोप अर्थात् बीर बहुटी दीखे हैं सो मानों वैराग्य रूप बज से चूर्ण भए रागके खण्डही पूथिवी विष फैल रहे हैं और For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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