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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ॥३६॥ । पद्म और किन्नरी जातिकी देवांगना तथा स्वर्गकी अप्सरा नृत्य कियाही करें और वीणा वांसुरी मृदंगादि , वादित्र नानाविधि के देव बजायाही करें और इन्द्र सदा सेवाकरें और आप महासुन्दर यौवन अवस्था विषे विवाह भी करते भए सो जिनके राणी अद्भुत प्रावती भई अनेक गुणकला चातुर्यता कर पूर्ण हाव भाव विलास विभ्रम की धरणहारी सो कैयकवर्ष श्राप राज्यकिया मनवांछित भोग भोगे एकदिवस शरद के मेघ विलय होते देख आप प्रतिबोधको प्राप्तभए तब लोकान्तिकदेवने आय स्तुतिकरी तब सुब्रत नाम पुत्रको राज्यदेय वैरागी भए कैसे हैं भगवान नहीं है किसीभी वस्तु की वांछा जिनके पाप वीतरागभाव । घर दिव्य स्त्री रूप जो कमलोंका बन वहां से निकसे कैसा है वह सुन्दर स्त्रीरूप कमलोंका बन सुगन्थ से व्याप्त किया है दसों दिशाका समूह जिसने फिर महा दिव्य जे सुगन्धादिक वेई हेमकरन्द जिसमें और सुगन्धताकर भ्रमें हैं भ्रमरोंके समूह जिसमें और हरित मणि को जे प्रभा तिनके जो पुञ्ज सोई है पत्रों का समूह जिसमें और दन्तों की जो पंक्ति तिनकी जो उज्ज्वल प्रभा सोई है कमल तंतु जिसमें और । नानाप्रकार आभूषणों के जे नाद वेई भए पक्षी उनके शब्दों से पूरितहै और स्तनरूप जे चकवे नित से शोभित हैं और उज्ज्वल कीर्तिरूप जोराजहंस तिनसे मण्डितहें सो ऐसे अद्भुत विलास तजकर वैराग्य के अर्थ देवों पुनीत पालिकीमें चढ़कर विपुल नाम उद्यान में गए कैसेहैं भगवान मुनिव्रत सर्व राजावों के मुकटमणि हैं सो बन में पालकी से उतर कर अनेक राजावों सहित जिनेश्वरी दीक्षा धरतेभए वेले पारणा करना यह प्रतिज्ञा प्रादरी राजगृह नगर में कृपभदत्त महा भक्ति कर श्रेष्ठ अन्न कर धारणा करावतो भया आप भगवान महा शक्ति से पूर्ण कुछवधा की बाधा से पीड़ित नहीं परन्तु आचारांग। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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