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॥३६४॥
पिछले पहिर सोलह स्वप्न देखे गजराज १ कृपभ र सिंह३ लक्ष्मी स्नान करती ४ दोय पुष्पमाल ५ चन्द्रमा ६ सूर्य ७ दो मछ जलमें केलि करते ८ जलका भरा कलश कमल समूहसे मूंहढका सरोवर कमल पूर्ण १० समुद्र ११ सिंहासनरत्न जड़ित १२ स्वर्गलोकसे विमान आकाशसे श्रावतेदेखे १३और नाग कुमारके बिमान पातालसे निकसते देंखे१४ रत्नोंकी राशि १५ निधूम अग्नि १६ तब गणी पद्मावती सुबुद्धिवंती जागकर आश्चर्यरूप भया है चित्त जिसका प्रभात कियाकर बिनय रूप भग्तारके निकट
आई पातके सिंहासनपर विराजी फुल रहाहै मुख कमल जिसका महान्यायकी वेत्ता पतिव्रताहाथ जोड नमस्कारकर पतिसे स्वप्नों का फल पूछती भई तब राजा मुमित्र स्वप्नोका फल यथार्थ कहते भए तबही रत्नोंकी वर्षा आकाशसे वरसतीभई साढ़े तीनकोटि रत्न एक सन्ध्यामें वरसे सो त्रिकाल संध्या वर्षा होतीभई पन्द्रह महीनों लग राजाके घर में रत्नपारा वर्षे और जे षट कुमारिका वे समस्त परिवार ! सहित माताकी सेवा करतीभई और जन्म होतेही भगवान को क्षीर सागर के जल से इन्द्र लोकपालों सहित सुमेरु पर्वत पर स्नान करावते भए और इन्द्रने भक्तिसे पूजा और प्रस्तुतिकर नमस्कार करी फिर सुमेरुसे ल्याय माताकी गोदमें पधराए जबसे भगवान माता के गर्भ में पाए तबहीसे लोक अणुव्रत रूप महाव्रतमें विशेष प्रवरते और माता व्रतरूप होती भई इसलिये पृथिवी पर मुनिसुत्रत कहाए अञ्जन | गिरि समान है वर्ण जिनका परन्तु शरीरके तेजसे सूर्यको जीतते भए.और कांति से चन्द्रमाको जीतते ।
भए सर्वभोग सामग्री इन्द्रलोक से कुवेर लावे और जैसा आपको मनुष्य भवमें सुख है तैसा अहमिन्द्रोंको। | नहीं और हाहा हह तंवर नारद विश्वावसु इत्यादि गन्धर्वो की जाति हैं वे सदा निकट गान कग्रहीकरें।
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