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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराण चमाकरा और अपने स्थानक जायकर मित्रबान्धव सहित सकल उपद्रव रहित अपना राज्य सुखसे करो ३४० मिष्ट वचन रावण के सुनकर वरुण हाथ जाड़ रोक्य से कहताभया हे बीराधिवीर हेमहाघीर तुम इस लोक में महापुण्याधिकारी हो तुम से जो वैरभावकरे सो मूल हो स्वामित्र यह तुम्हारा परम वीर्य हजारों • स्तोत्रोंसे स्तुति कर योग्य है तुमने देवाविति रत्न बिना, मुझे सामान्य शखोंसे जीवा कैसेहो तुम अद्भुत है प्रताप जिसका और इस पवन के पुत्र हनूमानके अद्भुत प्रभावकी क्या महिमा कहूँ तुम्हारे पुण्य के प्रभाव से ऐसे ऐसे सत्पुरुषं तुम्हारी सेवा करें हैं- हे प्रभो यह पृथ्वी काहूके गोत्र में अनुकमकर नहीं चली है यह केवल पराक्रमके वश है शुस्वीरही इसके भो का है सो खाप सर्व योघावों के शिरोमणिहो सो भूमिका प्रतिपालन करो हे उदारकीर्ति हमारे स्वामी आपही हो हमारे अपराध क्षमा करो । हे नाथ आप जैसी उत्तम चमा कहूं न देखी इसलिये आप सारिखे उदार चित्त पुरुषसे सम्बन्ध कर मैं कृतार्थ होऊंगा इसलिये मेरी सत्यवती नामा पुत्री आप परणों इसके परिणयोग्य आपही हो इसभांति बिनती कर अति उत्साह पुत्री परपाई कैसी है वह सत्यवती सर्वरूप वंतियोंका तिलक है कमलसमान है मुख जिसका वरुणने रावणका बहुत सत्कार किया और कईएक प्रयास रावणके लार मया रावणाने श्रति स्नेहसे सीख दीनी तब रावण अपनी राजधानी में आया पुत्री के वियोग से व्याकुल है चित्त जिसका कैलास कंप जो रावण उसने हनुमानका अति सम्मानकर अपनी बहिन जो चन्द्रनखा उसकी पुत्री अनंग कसुमा महा रूपवती सो हनुमान को परणाई सो हनुमान उसको परणकर अति प्रसन्न भए कैसी है अनंगकसुमा सर्वलोक में जो प्रसिद्ध गुण तिनकी राजधानी है और कैसी हैं कामके आयुधहें नेत्र जिस For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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