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पद्म पुराक ॥३१८०
जाय है रात्री जिनको ऐसी यह दोनों कभी तो कुटुम्बके निर्दईपने की कथा करें कभी धर्म कशाकरें अष्टापदने सिंहको ऐसे भगाया जैसे हाथी को सिंहभगावे | और सर्पको गरुड़ भगावे औरवहगंधर्वदेव बहुत आन्दरुप होय गावने लगासो एसागावता भया किजोदेवों के भीमनको मोहे तो मनुष्यों की क्या बात अर्धरात्री के समयशब्द रहित होय गए तब यह गावता भया और बारंबार वीण को अतिराग से बजावता भया और भी सारबाजे बजावता भया और मंजीरादिक बजावता भया मृदंगादिक बजारताभया बांसुरी प्रादिक छकक बाजे बजावता भया और सप्त स्वगें में गायातिनके नाम निषाद १,ऋषभर,गांधार३, षड़ज४,मध्यम५, धैवत ६, पञ्चम७, इनसप्त स्वरों के तीन ग्राम शीघ्र मध्य विलंबित और इक्कीस मुर्छना हैं सो गंधर्षों में जे बड़े देव हे तिनके समानगान किया इसगानविद्या में गंधवदेव प्रसिद्धहें उनंच्चास स्थानक रागकेहें सो सवहीगंधर्व देवजाने हैं सो भगवान श्री जिनेंद्रदेव के गुणसुन्दर अक्षरों मेंगाएकि में श्रीअरिहंत देवकोभक्तिकरवंदूहूं कैसे हैं भगवान देव और दैत्योंकर पूजनीकहें देवकहिये स्वर्गबासी दैत्यकहिए ज्योतिषी वितर और भवनवासी ये चतुरनिकाय के देव हैं सो भगवान सब देवों के देव हैं, जिनको सुरनर विद्या | घर अष्ट द्रव्यों से पूजे हैं फिर कैसे हैं तीन भवन में अति प्रवीन हैं और पवित्र हैं अतिशयजिनके ऐसे जे श्रीमुनिसुव्रतनाथ तिन के चरण युगलमें भक्तिपूर्वक नमस्कार करूं हूं जिनके चरणारबिंद के नखोंकी कांतिइन्द्रके मुकुटकी रत्नोंकी ज्योतिकोप्रकाश करे है, ऐसे गानगंधर्वदेवने गाएसो वसंतमाला अतिप्रसन्न | भई ऐसे राग कभीसुने नहीं थे सो विस्मयकर ब्याप्त भया है मन जिसका उसमीतकी प्रतिप्रशंसाकरती भई धन्य यह गीत धन्य यह गीत काहूने अतिमनोहरगाए मेरा हृदय अमृतकरमाछादितकियाअंजनी |
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