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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण ॥२१४॥ कि मेरे खान पान तो सहजही पवित्र, सुगन्ध मनोहर पुष्टक शुभ स्वाद मांसादि मलिन बस्तु क प्रसंग से रहित आहारहै और अहिंसा व्रतादि श्रावगका एकभी व्रत करिवेसमर्थ नहीं मैं अणुवत भी धारवेसमर्थनहीं तो महाबतकैसे धारूं माते हाथीसमान चित्तमेरा सर्ववस्तुवों में भ्रमता फिरे है मैं आत्म भाव रूपअंकुस से इस को वसकरवे समर्थ नहीं जे निग्रन्थका वृत धरे हैं वे अमि की ज्वाला पीवे हैं और पवन को बस्त्रमें बांधनाचाहें हैं और पहाड़को उठावनाचाहें हैं मैं महा शूरवीरभी तपबतधरने समर्थ नहींअहो धन्यहवेनरोत्तम जो मुनिव्रत धरे हैं में एकयह नियम धरूं जो परस्त्री अत्यन्त रूपवतीभी होय तो भी उसे बलात्कार से न छुवू अथवा सर्वलोक में ऐसी कौन रूपवती नारी है जो मुझे देखकर मनमथ की पीड़ी विकल न होय अथवा ऐसी कौन परस्त्री है जो विवेकी जीवों के मनको बशकरे कैसी है पर स्त्री परपुरुष के संयोग से दुखित है अंग जिसका स्वभाव ही से दुर्गंध विष्टा की राशि में कहां राग उपजे ऐसा मनमे विचार भाव सहित अनन्त बीर्य केवली कोप्रणाम करदेवमनुष्य असुरोंकी साचितामें प्रगट ऐसा बचन कहता भया ,हे भगवान इच्छा रहित जो परनारी उसे मैंनसेवं यहमेरेनियम है और कुम्भकर्ण अर्हन्त सिद्ध साधु केवली भाषित धर्म का शरण अंगीकार कर सुमेरुपर्वत सारिखा है अचल चित्त जिसका सो यह नियम करता भया कि मैं प्रातही उठकर प्रति दिन जिनेंद्र की अभिषेक पूजा स्तुति कर मुनिको विधिपूर्वक आहार देयकर आहार करूंगा अन्यथा नहीं मुनि के अाहारकी बेला पहिले सर्वथा भोजन न करूंगा और सर्वसाधुओंकोनमस्कारकर और भी घने नियमलिये और देवकहियेकल्पवासी | असुर कहिये भवनत्रिक और विद्याधर मनुष्य हर्ष से प्रफुल्लितहैं नेत्रजिनके। सर्व केवली को नमस्कार कर For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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