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पद्म
॥२५२
लिये सबदोष रहित जिन आज्ञा प्रमाण जा महा दान करे सो महा फल पावे वाणिज्य समान धर्म हेकभी किसी बणजविषे अधिक नफा होय कभी अल्प होय कदापि टोटा होय कदे मूलही जातारहे अल्पसे बहुत फल होजोय बहुतसे अल्प होजाय और जैसे विषका कणसरोवरीमें प्राप्तभयां सरोवरी को विषरूप न करे तैसे चैत्यालयादि निमित्त अल्प हिंसा सो धर्मका विघ्न न करे इसलिये गृहस्थी भगवानके मन्दिर करावें कैसे हैं गृहस्थी जिनेन्द्रकी भक्ति विषे तत्पर हैं और व्रत क्रिया प्रवीण हैं अपनी विभूति प्रमाण जिन मन्दिरकर जल चन्दन धूप दीपादिकर पूजा करनी जे जिन मन्दिरादिमें धन खरचेहें वे स्वर्गलोक में | तथा मनुष्यलोक में अत्यन्त ऊंचे भोग भोग परम पद पावे हैं और जे चतुरविध संघ को भक्तिपूर्वक दान करे हैं वे गुणोंके भाजन हैं इन्दादि पद के भोगों को पावे हैं इसलिये जे अपनी शक्ति समान सम्यक्दृष्टिपालों को भक्ति स दान करे हैं तथा दुखियोंको दयाभावकर दान करे हैं सो धन सफल है
और कुमारग में लगा जो धन सो चोरों से लूटा जानो और श्रात्यध्यानके योगसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होयहै जिनको केवलज्ञान उपजा तिनको निर्वाण पदहे सिद्ध सर्बलोक के शिखर तिष्ठे हैं सर्ववाघा रहित अष्टकर्म से रहित अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख अनन्तवीयसे संयुक्त शरीर से रहित अमूर्तिक पुरुषाकार जन्म मरणसे रहित अघिचल विराजे हैं जिनका संसारविषेत्रागमन नहीं मन इन्द्रीसे अमोचरहे ऐसा सिद्धपद धर्मात्मा जीव पावे हैं और पापीजीव लोभरूप पवन से वृद्धिको प्राप्त भई जो दुखरूप अग्नि उसमें बलते सुकृतरूप जल बिना सदा क्लेशको पावे हैं पापरूप अंधकारकेमध्य तिष्ठे मिथ्यादर्शनके वशीभूत हैं कोई यक भव्यजीव धर्मरूप सूर्यकी किरणोंसे पाप तिमिरको हर केवलज्ञानकोपावे हैं और ये जीव अशुभरूप
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