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॥२५॥
| को श्रेष्ठ वस्तुका दान नहीं करेह सो निंद्य हैं दान बड़ा धम है सो विधि पूर्वक करना और पुण्य पाप || पुराण विषे भावही प्रधान है जो बिना भाव दोन करे हैं सो गिरिक सिरपर बरसे जल समानहें सो कायकारी
नहीं क्षेत्रमें बरसे है सो कार्यकारी है जो कोई सवज्ञ वीतरागको ध्यावे है और सदा विधिपूर्वक दानकर है उस के फलको कौन कहसके इसलिये भगवान के प्रतिबिंब तथा जिन मन्दिर जिन पूजा जिन प्रतिष्ठा सिद्ध क्षेत्रोंकी यात्रा चतुरविध संघकी भक्ति शास्त्रों का सर्व देशोंमें प्रचार करना यह धन खर्चनेके सप्त महा क्षेत्र हैं तिन विषे जो धन लगावे सो सफल है तथा करुणादान परोपकार विष लगे सो सफल है और जे आयुधका ग्रहण करे हैं वे द्वेष संयुक्त जानने तिनके राग द्वेषहँ तिनके मोहभी है और जे कामिनीके संगसे आभूषणों का धारणकरे हैं वे रागी जानने और मोह बिना राग दोष होयनहीं सकल दोषोंका मोह कारण है जिनके रागादि कलंकहें ते संसारी जीवहें जिनके ये नहीं वे भगवान हैं जे देश काल कामादि के सेवनहारे हैं ते मनुष्य तुल्यहें तिनम देवत्त्व नहीं तिनकी सेवा शिवपुरको कारण नहीं और किसीके पर पुण्य के उदय से शभ मनोहर फल होय है सो कुदेव सेवाका फल नहीं कदेवनकी सेवा से संसारिक सुख भी न होय तो शिवसुख कहांसे होय इसलिये कुदेवोंका सेवना बालूको पेल तेलका काढ़ना है और अग्नि के सेवन ते तृषाका बुझावना है जैसे कोई पंगु को पंगु देशान्तर न लेजायसके तैसे कुदेवों के अाराधन से परम पदकी प्राप्ति कदाचित न होय भगवान विना और देवोंके सेवनका क्लेशकर सो बृथाहै कुदेवन में देवत्व नहीं और जे कुदेवों के भक्तहें वे पात्र नहीं लोभकर प्रेरे प्राणी हिंसाकर्म विषे प्रवरते हैं. हिंसा का भय नहीं अनेक उपायकर लोकोंसे धन लेयह संसारी लोकभी लोभी सो लोभियों प ठगावें हैं इस
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