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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्न पुराण २९ हरिवंश रूप आकाश विषे चन्द्रमा समान भए और प्रभव सम्यक्त बिना अनेक योनियों में भ्रमणकर विश्वाक्सुकी ज्योतिषमती जो स्त्री उसकैशिखी नामा पुत्रभया,सोदव्यलिंगी मुनि होय महा तपकर निदान के योगसे असुरों के अधिपति चमरेंद्र भए तब अवधिज्ञान कर अपने पूर्व भव विचार सुमित्रनामा मित्र के गुण अति निर्मल अपने मनमें घारे, सुमित्र राजा को अतिमनोज्ञ चरित्र चितार कर असुरेंद्र का इद प्रीती कर मोहित भया मन में विचारों किराजासुमित्र महा गुणवान मेरा परम मित्र थासर्व कार्यों में सहाई था उस सहित में चटशाला में विद्यापढ़ा में दरिद्री था सोउसने श्राप समानविभतिवान किया और में पापी दुष्टचित्तने उसकी स्त्री में खोटे भाव किए तो भी उस ने द्वेष न किया स्त्री मेरे घर पठाई में मित्रकी स्त्री को माता समान जान अति उदास होय अपना शिर खड्ग से काटने लगा तब-उसहीने थाभ लिया और मैंने जिनशासनकी श्रद्धाविना मरकर अनेक दुःख भोगे और जे मोक्षमार्गके प्रवरतन हारेसाधु पुरुष उनकी निन्दा करी सो कुयोनिमें दुःख भोगे और वह मित्र मुनिव्रत अंगीकार कर दूजे स्वर्ग इन्द्रभया वासे चयकर मथुरापुरीमें राजा हरिखोहनका पुत्र मधुबाहनहुवाहै और में विश्वावसु का पुत्र शिखीनाम द्रव्य लिंभी मुनी होय असुरेंद्र भया यह विचार उपकारका खैचा परम प्रेमकर भीमा है मन जिसका अपचे भवन से निकस कर मध्यलोकमें आया मधुवाहन मित्रसे मिला महारत्नोंसे मित्र का पूजन किया सहस्रांत नामा त्रिशूल रत्न दिया गधुवाहन चमरेंदको देख बहुतप्रसन्नहुवा फिर चम रेन्द्र अपने स्थामकको गया हे श्रेणिक शस्त्र विद्याका अधिपति सिंहोंकाहे वाहन जिसके ऐसा मधुकुवर हरिवंशका तिलक रावण है श्वसुर जिसका सुखसों तिष्ठे यह मधुका चरित्र जो पुरुप पढ़ें सुनें सो कॉति | को प्राप्त होय और उसके सर्व श्रथ सिद्ध होय। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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