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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन पुराव ॥२०१० और नगरकसमीप एते लोग किसकारण एकत्र भरहें ऐसा मनमें विचार आकाशसे भूमि पर उतरे ।। अथानन्तर यह बातमुन राजाश्रेणिक गौतमस्वामीसे पूछने लगे हे भगवान! यह नारद कौनहै और इसकी उत्पत्तिकिस भांतिहे तब गणधरदेव कहते भए हे श्रेणिक !एक ब्रह्मरुचि नामाब्राह्मणया ताके कुरमी नागा स्त्री सो ब्राह्मण तापसके ब्रतधर बनमें जाय कंदमूल फल भक्षण करे ब्राह्मणी भी संग रहे उस को गर्भ रहा वहां एक दिन मार्गके बशसे कुछ संयमी महामुनि पाए क्षण एक विराजे ब्राह्मणी और ब्राह्मण समीप पाय बैठे ब्राह्मणी गर्भिणी पांडुरहै शरीर जिसका गर्भके भारकर दुखित स्वासलेती मानों सर्पणीही है उसको देखकर मुनिको दया उपजी तिन से बड़े मुनि बोले देखो यह प्राणी कर्म के बशकर जगत विषे भ्रमेहै धर्मही बुद्धिकर कुटंबको तजकर संसार सागरके तरणके अर्थ तो वन विषेश्राया सो हे तापस लेने क्या दुष्ट कर्म किया स्त्री गर्भवती करी तेरे में और गृहस्थीमें क्या भेदहै जैसे वमन किया जो आहार उसे मनुष्य न भवे तैसे विवेकी पुरुष तजे कामादिकोंको फिर नादरेजो कोई भेषधर और श्रीका सेवन करे सो भयानक वनमें ल्याली होय अनेक कुजन्म पावे नरक निगोदमें पडेहे जो कोई कुशील सेवता सर्व प्रारंभोंमें प्रवरततामदोनमत श्रापको तपसी मानेहै सो अत्यन्त अज्ञानी है यह काम सेवन । ताकर दग्ध दुष्टचित्त जो दुरात्मा आरंभविषे प्रवर्ते उसके तप काहेको कुदृष्टिकरगर्वित भेषधारी विषिया भिलाषी जो कहे मैं तपसीहूं सो मिथ्यावादी है काहेको बती मुखसों बैठना सुखसू सोवना सुखसू अाहार मुखमं बिहार ओढ़ना विछावना और आपको साधु माने सो मुर्ख आपको ठगेहै वलता जो घर तहा। | ते निकसे फिर उसमें कैसे प्रवेश करे और जैसे छिद्र पाय पिंजरेसे निकसा पक्षी फिर श्रापको कैसे। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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