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पद्म
पुराण ॥१४॥
किया कि हे देव निष्कारण युद्ध करनेसे क्या क्षमाकरो आगे अनेक योधा मान करके क्षयभए रणही था प्रिय जिन को अष्टचन्द्र विद्याधर अर्ककीर्ति के भुज के आधार जिन के देव सहाई तौभी मेघेश्वर जयकुमारके बाणोंकर क्षय भए रावण की बड़ी सेना है जिसकी ओर कोई देखसके नहीं खड़ग गदो सेल बाण इत्यादि अनेक आयुधों कर भरी है अतुल्य है इसलिये आप संदेहकी तुला जो संग्राम उस के अर्थ न चढ़ो तब बाली ने कही अहो मन्त्री हो अपनी प्रशंसा करनी योग्य नहीं तथापि में तुमको यथार्थ कहूं हूं कि इस रावणको सेना सहित एक क्षणमात्र में बायें हाथकी हथेलीसे चूरडारने को समर्थ, हूं परन्तु यह भोग क्षणविनश्वर हैं इनके अर्थ ऐसा निर्दय कर्म कौन करै जब क्रोघरूपी अग्नि से मन प्रज्वलित होता है तब निरदय कर्म होता है यह जगत के भोग केलेके थंभ समान असार हैं तिन को पाकर मोहवन्त जीव नरकमें पड़े हैं नरक महादुःखों से भरा है सर्व जीवों को जीतव्य वल्लभ है सो जीवों के समूहको हतकर इन्द्रियोंके भोग सुख प्राप्त होसक्ते हैं ऐसे भोगों में गुण कहां इन्द्रीय सुख साक्षात दुखही हैं ये प्राणी संसार रूपी महाकूप में अरहटकी घड़ी के यन्त्र समान रीती भरी करते रहते हैं यह जीव विकल्प जाल से अत्यन्त दुःखी हैं श्री जिनेंद्रदेवके चरण युगल संसार से तारणे के कारण हैं उनको नमस्कार कर और को कैसे नमस्कार करूं मैंने पहिलसे ऐसी प्रतिज्ञा करी है कि देव गुरु शास्त्र के सिवाय और को प्रणाम न करूंगा इसलिये मैं अपनी प्रतिज्ञा भंगभी न करूंगा और युद्ध में अनेक प्राणियों का प्रलयभी न करूंगा बल्कि मुक्तिकी देनहारी सर्व संग रहित दिगम्बरी दीक्षा धरूंगा | मेरे जो हाथ श्री जिनराजकी पूजा में प्रवरतें दान में प्रवरतें और पृथिवी की रक्षा में प्रवरतें वे मेरे
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