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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराण ७ ९७३ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थी तब दूत ने फेर कही कि हे कपिध्वज अधिक कहिने से क्या है मेरे वचन तुम निश्चय करो अल्प लक्ष्मी पाकर गर्व मतकरो यातो दोनों हाथ जोड़ प्रणाम करो या आयुध पकड़ो यातो सेवक होकर स्वामी पर चंवर दौरों या भागकर दशों दिशा में विचरो या सिर निवावो या खँचिकै धनुष निवावो या रावण की आज्ञा को कर्णका आभूषण करो या धनुषकी पिणच खेंचकर कानों तक लावो यातो मेरे चरणारविन्द की रज माथे चढ़ावो या रण संग्राम में सिरपर टोप घरो यातो बाण छोड़ो या धरती छोड़ो यात हाथ में वेत्र दण्ड लेकर सेवा करो या वरळी हाथमें पकड़ो यातो अंजली जोड़ो या सेना जोड़ो या तो मेरे चरणों के नख में मुख देखो या खड्ग रूप दर्पण में मुख देखो ये कठोर वचन रावणके दूतने वाली से कहे तब बाली का व्याघ्रविलंबी नामासुभट कहता भया रेकुदूत नीच पुरुष तू जैसे विवेक के वचन है तू खोटे ग्रहकर ग्रह है समस्त पृथिवी पर प्रसिद्ध है पराक्रम और गुए जिसका ऐसा बाली देव तूने अबतक कर्णगोचर नहीं किया ऐसा कहकर सुभट ने महा क्रोधायमान होकर दूत के मारणे को खडग पर हाथ धरा तब बाली ने मने कीया कि इस रंक के मारणे से क्या यह तो अपने नाथके कहे प्रमाण वचन बोले है और रावण ऐसे वचन कहावे है सो उसीकी आयु अल्प है तब दूत डरकर शिताब राव पै गया रावणको सकल वृत्तान्त कहा रावण महा क्रोधको प्राप्त भया दुस्सह तेजवान रावणने बड़ी सेनाकर मण्डित वखतर पहर शीघ्रही कूच किया रावणका शरीर तेजोमय परमाणुवों से रचागयाहै रावण किहकन्धपुर पहुंचे बाली ने परदल का महा भयानक शब्द सुनकर युद्ध के अर्थ बाहिर निकसने का उद्यम किया तब महा बुद्धिमान नीतिवान जे सागर वृद्धादिक मन्त्री उन्हों ने वचनरूपी जलसे शांत For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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