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पद्म
पुराण
७ ९७३ ।।
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थी तब दूत ने फेर कही कि हे कपिध्वज अधिक कहिने से क्या है मेरे वचन तुम निश्चय करो अल्प लक्ष्मी पाकर गर्व मतकरो यातो दोनों हाथ जोड़ प्रणाम करो या आयुध पकड़ो यातो सेवक होकर स्वामी पर चंवर दौरों या भागकर दशों दिशा में विचरो या सिर निवावो या खँचिकै धनुष निवावो या रावण की आज्ञा को कर्णका आभूषण करो या धनुषकी पिणच खेंचकर कानों तक लावो यातो मेरे चरणारविन्द की रज माथे चढ़ावो या रण संग्राम में सिरपर टोप घरो यातो बाण छोड़ो या धरती छोड़ो यात हाथ में वेत्र दण्ड लेकर सेवा करो या वरळी हाथमें पकड़ो यातो अंजली जोड़ो या सेना जोड़ो या तो मेरे चरणों के नख में मुख देखो या खड्ग रूप दर्पण में मुख देखो ये कठोर वचन रावणके दूतने वाली से कहे तब बाली का व्याघ्रविलंबी नामासुभट कहता भया रेकुदूत नीच पुरुष तू जैसे विवेक के वचन
है तू खोटे ग्रहकर ग्रह है समस्त पृथिवी पर प्रसिद्ध है पराक्रम और गुए जिसका ऐसा बाली देव तूने अबतक कर्णगोचर नहीं किया ऐसा कहकर सुभट ने महा क्रोधायमान होकर दूत के मारणे को खडग पर हाथ धरा तब बाली ने मने कीया कि इस रंक के मारणे से क्या यह तो अपने नाथके कहे प्रमाण वचन बोले है और रावण ऐसे वचन कहावे है सो उसीकी आयु अल्प है तब दूत डरकर शिताब राव पै गया रावणको सकल वृत्तान्त कहा रावण महा क्रोधको प्राप्त भया दुस्सह तेजवान रावणने बड़ी सेनाकर मण्डित वखतर पहर शीघ्रही कूच किया रावणका शरीर तेजोमय परमाणुवों से रचागयाहै रावण किहकन्धपुर पहुंचे बाली ने परदल का महा भयानक शब्द सुनकर युद्ध के अर्थ बाहिर निकसने का उद्यम किया तब महा बुद्धिमान नीतिवान जे सागर वृद्धादिक मन्त्री उन्हों ने वचनरूपी जलसे शांत
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