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चा
१०३६ ।।
शब्द रहित यह नगरी तुम्हारे वियोग कर व्याकुल भई नहीं सोहे है कोई अगिले भव में महा अशुभ चरण कर्म उपार्जे तिनके उदय कर तुम सारीखे भाई की अप्रसन्नता से महाकष्ट को प्राप्त भया हूं हे मनुष्यों के सूर्य्य जैसे युद्ध में शक्ति के धावकर अचेत होय गये थे और आनन्द से उठे मेरा दुःख दूर किया तैसे ही उठकर मेरा खेद निवारो ॥ इति एक सोसत्तखां पर्व शप्पूर्णम ||
अथानन्तर यह वृत्तांत सुन विभीषण अपने पुत्रों सहित और विराधित सकल परिवार सहित और सुग्रीव आदि विद्याधरों के अधिपति अपनी स्त्रिों सहित शीघ्र अयोध्यापुरी याये सुवों कर भरे हैं नेत्र जिनके हाथ जोड़ सीस निवाय राम के समीप आये महाशोकरूप हैं चित्त जिनके अतिविषाद के भरे राम को प्रणाम कर भूमि में बैठे, क्षण एक तिष्ठकर मंद मंद बाण कर बीनती करते भये हे देव यद्यपि यह भाई का शोक दुर्निवार है तथापि आप जिनवाणी के ज्ञाताहो सकलसंसार का स्वरूप जानो हो इसलिये आप शोक तजिवे योग्य हो, ऐसा कह सबही चुप होय रहे फिर विभीषण सब बात में महा विषक्षण सो कहता भया हे महाराज यह अनादिकालकी रीति है कि जो जन्मा सो मुवा, सब संसार में यही रीति है इनहीको नहीं भई जन्मकासाथी मरण है मृत्यु अवश्य है काहू से न टरी न काहू से टरे इस संसार पिंजरे में पड़े. यह, जीवरूप पक्षी सबही दुखी हैं काल के वंश हैं मृत्युका उपाय नहीं और सब के उपाय हैं यह देह निसंदेह विनाशीक है इसलिये शोक करना वृथा है, जे प्रवीण पुरुष हैं वे आत्मकल्याण का उपाय करे हैं रुदन की से मरा न जीवे और न वचनालाप करे, इसलिये हेनाथ शोक न करो यह मनुष्यों के शरीर तो स्त्री पुरुषों के संयोग से उपजे हैं सो पानी के बुदबुदावत् दिलाय जाय इसका आश्चर्य कहां
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