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पद्म | मांस के अभिलाषी रोगरूप लोह के प्रांकडे के रोगकर कालरूप धीवर के जालमें पड़े हैं भगवान श्री पण तीर्थंकर देव जीनलोक के ईश्वर सुरनर विद्याधरों करवंदित यह ही उपदेश देतेभए कि यह जगत्के जीव
अपने अपने उपार्जे कर्मों के वश हैं और इस जगत् को तजे सो कमों को हते इसलिये हे तात हमारे इष्ट संयोगके लोभकर पूर्णता न होवे यह संयोगसंबंध विजरी के चमत्कारवत् चंचल हैं जं विचक्ष जन हैं ये इनसे अनुराग न करें और निश्चय सेती इस तनुसे और तनके संबंधियों से वियोय होयगा को इन में कहां प्रीति और महालंशरूप यह संसार बन उसमें कहां निवास और यह मेरा प्यारा ऐसी बुद्धि जीवों के अज्ञान से है यह जीव सदा अकेला भव में भटके है गतिगति में गमन करतामहादुखी हैं हपिता हम संसार सागर म झकोला खाते अति खेदखिन्न भए कैसा है संसार सागर मिथ्याशास्त्ररूप है दुखदाई बीप जिसमें और मोहरूप हैं मगर जिसमें और शोक संतापरूप सिवानकर संयुक्त सोऔर दुर्जयरूप नदियोंकर पूरितहै औरभ्रमणरूपभ्रमणके समूहका भयंकरहै और अनेक प्राधिव्याधि उपाधिरूप कलोलोंका युक्त है औरकुभावरूप पातालकुण्डोंकर अगमहै औस्क्रोधादिक्ररभावरूपजलचरोंके समहकर भरा है और वृक्षा बंकवादरूप हाय है शब्द जहां और ममत्वरूप पवन कर उठे हैं विकल्परूपतरंग जहां और दुर्गतिरूपक्षार जलकर भरा है और महादुस्सहइष्टवियोग अनिष्ट संयोगरूपातापसोई है बड़वानलजहां, ऐसे भवसागर
में हम अनादि काल के खेदखिन्न पडे हैं नानायोनि में भ्रमण करते अतिकष्ट से मनुष्य देह उत्तम । कुल पाया है सो अब ऐसा करेंगे फिर भवभ्रमण न होय। सो सबसे मोह छुड़ाय आठोंकुमारमहाशवीर
घररूप बन्दीखाने मे निकसे उन महाभाग्योंके ऐसी वैराग्य बुद्धि उपजी जो तीनखंड का ईश्वरपणाजीर्ण
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