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५. काम भी न पालाशे शातिनके वश होय रति अरतिभानना महामूढ़ताहै विवेकियों को शेकभी न पुराण करना और हास्य भी न करनी ये सबही संसारी जोव कर्म के वश भूम जाल में पड़े हैं ऐसा नहीं करें हैं
जिसकर कर्मों का नाश होय कोई विवेकी करे सोई सिद्धपद को प्राप्त होय इस गहन संसार बन विषे ये पाणी निजपुरझा मार्ग भूल रहे हैं ऐसा करें जिंसकरभव दुख निवृत्ति होय हे भाई हो यह कर्म भूमि
आर्यक्षेत्र मनुष्य देह उत्तम कुल हमने पाया सो एते दिन योही खोये अब बीतराग का धर्म आराध मनुष्य देह सफल करो एक दिनमें बालक अवस्था विषे पिताकी गोदमें बैठाथा सो वे पुरुषोत्तम समस्त-राजावाको उपदेश देतेथ वे बस्तुका स्वरूप सुन्दर स्वर कहते थे सो मे रुचिसों सुना चारों गति से मनुष्यगति दुर्लभहै सो जोमनुष्यभवपाय अात्महित न करे हैं सो ठगाएगए जान दानकर तोमिथ्याष्टि भोगभूमि जावें और सम्यग्दृष्टि दानकर तपकर स्वर्गजांय परम्पराय मोक्ष जावें और शुद्धोपयोग रूप आत्मज्ञानकर यह जीव इस ही भव मोक्ष पाये और हिंसादिक पापोंकर दुर्गति लहे जो तपन करे सोभवचन में भटके बारम्बार दुर्गति के दुख संकठ पावें इस भांति विचार वे अष्टकुमार शूरवीर प्रतिबोध को प्राप्त भये संसार सागर के दुःख रूप भवोंसे डरे शीघ्र ही पिता पै गए प्रणाम कर बिनय से खड़े रहे और महा मधुर वचन हाथ जोड़ कहते भए हे तात हमारी विनती सुनो हम जैनेश्वरी दिक्षा अंगीकार किया चाहे हैं तुम आज्ञा देवो यह संसार विजरी के चमत्कार समान अस्थिर है केलि के स्तम्भ समान असार
है हम को अविनासी पुर के पन्थ चलते विघ्न न करो तुम दयालु हो कोई महा भाग्य के उदयसे हम | को जिनमार्ग का ज्ञान भया अब ऐसा करें जिसकर भवसागर के पार पहुंचे ए काम मोग प्राशीविष
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