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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥८६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । शार्दूलविक्रीड़ित । यद्यन्तर्निहितानि खानि तपसा वाह्येन किं फल्गुना नैवान्तर्निहितानि खानि तपसा वाह्येन किं फल्गुना । यद्यंतर्वहिरन्यवस्तुतपसा वाह्येन किं फल्गुना नैवान्तर्वहिरन्यवस्तुविषया वाह्येन किं फल्गुना ॥ १५६॥ अर्थः- आचार्य फिर भी उपदेश देते हैं कि वाह्यवस्तु से जुदेहोकर यदि इंद्रियोंका शुद्धात्मा के साथ संबंध रहातो वाह्यमें तप करना व्यर्थ है और यदि इंद्रियोंका शुद्धात्माके साथ संबंध न रहा तोभी तपकरना व्यर्थ है और यदि अंतरंग अथवा वाह्यमें अन्यपदार्थोंकी ममता वनीरही तो तपकरना व्यर्थ है तथा यदि अंतरंग में तथा वाह्यमें किसी पदार्थसे ममता नहीं रही तो भी तपकरना व्यर्थ ही है । भावार्थः तप इंद्रिय तथा पदार्थोंमें ममताके दूरकरनेकेलिये किया जाता है यदि इंद्रियोंका संबंध तथा पदार्थोंमें ममता बनी रही तौभी किया हुवा भी तप व्यर्थही है अर्थात् वह तप निष्प्रयोजन ही है यदि इंद्रियोंका संबंध टूटगया तथा पदार्थोंसे ममता भी दूर होगई तोभी तपकरना व्यर्थही है क्योंकि जिनके नाश केलिये तपकिया जाता है वे तो प्रथमसे ही नष्ट होचुकी इसलिये इंद्रियोंका संबंध तथा पदार्थोंमें ममता दूर करने के लिये ही तप करना चाहिये ॥ १५६ ॥ शुद्धं वागतिवर्तितत्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेशमिति प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितं । तत्राद्यं श्रयणीयमेव विदुषा शेषद्वयोपायतः सापेक्षा नयसंहतिः फलवती संजायते नान्यथा ॥ अर्थः — ग्रंथकार कहते हैं कि शुद्धनय तो वचनके द्वारा कहा नहीं जासक्ता किंतु व्यवहारनय ही वचनके द्वारा कहा जाता है तथा वह व्यवहारनय शुद्धनयको कहनेवाला है इसलिये उसको शुद्धादेश शुद्धनयको कहनेवाला भी कहते हैं और जो भेदको उत्पन्न करानेवाला है उसको अशुद्धनय कहते हैं इसरीति से शुद्ध For Private And Personal ॥८६॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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