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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir H७८॥ 0606 1+000000000000000000000000000000000000000000000000000 पचनन्दिपश्चविंशतिका । तथा इसके होतेसन्ते संतोष करना भी बिना प्रयोजनका है तथा इंद्रिय आदि पदार्थोंसे उत्पन्न हुवा सुख विनाशीक है इसलिये इसके हातेसन्ते रोष तथा इसके होतेसन्ते संतोष मानना भी निष्प्रयोजन है इसलिये ऐसा भलीभांति विचारकर तुझे अपना बल जो अनन्तज्ञानादिक है उसकी आराधना करनी चाहिये और तुझे अपने स्वरूपसे दूर नहीं रहना चाहिये अर्थात् अपने अंतरंगमें प्रवेशकर तुझे समस्त परिग्रहका त्याग करदेना चाहिये। भावार्थः-स्त्रीपुत्र कुटुंब शरीर इन्द्रियसुख आदिमें प्रीतिकर तथा अपने खरूपको भूलकर बहुतकाल तक इससंसारमें भ्रमण किया अब विषयोंमें आशाकर दीनकी तरह तुझै जहांतहां डोलना ठीक नहीं इसलिये समस्त परिग्रहका नाशकर अपने स्वरूपमें लीन हो अब अपने खरूपसे दूर रहना भी ठीक नहीं ॥११॥ शार्दळ विक्रीड़ित । आस्तामन्यगतौ प्रतिक्षणलसढुःखाश्रितायामहो देवत्वेऽपि न शान्तिरस्ति भवतो रम्येणिमादिश्रिया। यत्तस्मादपि मृत्युकालकलयाधस्ताद्धठात्पात्यसे तत्तन्नित्यपदं प्रति प्रतिदिनं रे जीव यत्नं कुरु ॥१४२॥ अर्थः-जहांपर प्रतिक्षणमें दुःख ही दुःख है ऐसी नरक तिर्यचादि गति तो दूर ही रहो परन्तु जहांपर सदा अणिमा महिमा आदिक लक्ष्मी निवास करती हैं ऐसी देवगतिमें भी तेरोलिये अंशमात्र भी सुख नहीं है क्योंकि वहांसे भी तुझे मरणकी चेला बलात्कारसे नीचे गिरा देती है अर्थात् मृत्युकेसमयमें स्वर्गसे भी नीचे गिरना पड़ता है इसलिये आचार्य कहते हैं हे जीव तुझे अविनाशी मोक्षपदकेलिये ही सर्वदा प्रयत्न करना चाहिये। भावार्थ:-सिवाय मोक्षके कोई भी स्थान ऐसा नहीं जहांपर लेशमात्र भी मुख भिलै इसलिये भव्यजीवोंको जहांपर किसीप्रकारका केश नहीं ऐसे मोक्षपदकेलिये ही प्रयत्न करना चाहिये ॥१४॥ यदृष्टं वहिरङ्गनादि सुचिरं तत्रानुरागो भवेत् भ्रान्त्या भूरितथापि ताम्यसि ततो मुक्त्वा तदन्तर्विश। ॥७ ॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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