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देवपूजा रत्नत्रयपूजा पूनाकी लाइब्रेरीमें प्राप्त है। सातवें विक्रम सं० १३६२ में भट्टारक नामसे हुवे हैं इनकी लघुपद्मनंदी संज्ञा भी है इनके बनाये हवे यत्याचार आराधनासंग्रह परमात्मप्रकाशकी टीका, निपंडु (वैद्यक) श्रावकाचार कळिकुंडपान्नाथविधान अनंतकथा आदि ग्रंथ६ कितु पद्मनंदी जोकि जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके कर्ता हैं और विजयनगरके निकट वारानगरके शक्तिभूपाल के समय में हुवे हैं वेही पद्मनंदिपंचविंशतिका की जानपडते हैं क्योंकि इसमें प्रथम प्रमाणतो यह है कि ये प्राकृत भाषाकेभी पूर्ण जानकार थे क्योंकि इन्होंने इसमंथमें ऋषभ स्तोत्रका तथा जिनेंद्रस्तोत्रका प्राकृत भाषामें वर्णन किया है इसलिये प्राकृत ग्रंथ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति इन्हीका बना हुवा होना चाहिये । दूसरे-जगह २ | इसप्रथमें इन्होंने वीरनंदी गुरुको नमस्कार किया है इसलिये यदि ये वीरनंदीके शिष्य प्रशिष्यों में से हैं तो इस पद्मनंदिपंचविंशत्तिकाके की का यही है इन्दनि वलनंदीको इसप्रथमें नमस्कार नहीं किया है इसलिये संभावना होती है कि शायद वलनंदी इनके सहपाठियों में उत्तम नंवर के
सहपाठी हों इसलिये इनकी प्रखर गुरुत्व बुद्धि उनमें न हो ? इनप्रमाणोंसे यह भी बात समझमें आती है कि दूसरे पद्मनदीनामके आचार्यने
जो पंचविंशतिका बनाई है वह इस पंचविंशतिकासे भिन्न कोई दूसरी पंचविंशत्तिका होनी चाहिये यद्यपि इनके बनाये हुवे ग्रंथोंसे यह बात बाबखूबी रीतिसे जानी जाती है कि प्राकृत भाषाके जानकार ये भी थे इसलिये इस पान दिपंचविंशतिकाके कत्ती ये भी होसकते हैं किन्तु इसथातका
का कोई बलवान प्रमाण नजर नहीं आता कि य बीरनंदीके शिष्य प्रशिष्योंमेंस ही होवे इसलिये यही बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि इस पानदिपंचविंशतिकाके की प्रथम पानंदी ही है। जो विज्ञगण जैनजातिमें इतिहास के वेत्तानको चाहिये कि वे इग्रंथके। मक्ष जापायके समयादिका पताळगावें और इनके समय आदिका निर्णय करें हमारे पास सामना भादिक न होनेसे हम ऐसे महान आचार्योक समय भादिके निर्णय करने में सर्वथा असमर्थ है।
पाठकबूंद ! मुझ अल्पज्ञमें इतनी शक्ति नहीं थी कि इस ग्रंथका अनुवाद कर मैं पूराकर सकता किंतु कई कारणोंसें मुझे यहकाम जबरन हाथमें लेनापडा और यथासाध्य करना भी पडा इसलिये विद्वानों के सामने मेरी यह सविनय प्रार्थना है कि वे मेरा इस अनुवादका प्रथमकार्य जानकर त्रुटितस्थलोंपर क्षमाप्रदान करें। मेरेभाई आदिकी बीमारियों के कारण आपत्तियों में मुझे इधर उधर भागना पड़ा था इसलिये कई फारमोंका संशोधन मैं नहीं कर सका जहां तक बना है अशुद्धिपत्र में उनकामौकी अशुद्धियां लेली गई हैं। मुझे इसग्रंथके संपादन करते समय दो पुस्तक मिली थी उनके आधार पर ही यह इसकी भाषाटीका की है, अपनी ओरसे मैंने कुछ नहीं किया है। विशेष इसप्रकार के गंभीर ग्रंथके अनुवादमें मेरा कोरा साहस ही विद्गण समझें और मुझे क्षमा करें।
विद्वजनोंका सेवक, गजाधरलाल जैन ।
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