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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandit ॥७२॥
पअनन्दिपञ्चविंशतिका । उड़ाना चाहिये क्योंकि अब यह देह (आत्मा) नष्ट होजावेगा तो फिर लौटकर नहीं आवेगा जिससे वह लिया हुवा ऋण देना पड़े इससिडन्तका आचार्य खंडन करते हैं कि (नभृतजनितः) अर्थात् जो तुम सर्वथा आत्माको पृथ्वी आदिसे पैदा हुवा मानते हो यहवात सर्वथा झूठ है क्योंकि अचेतनसे चेतनकी उत्पत्ति कदापि नहीं होसक्ती आत्माचेतन है पृथ्वी आदि अचेतन है वे किसी प्रकार आत्माको उत्पन्न नहीं करसक्ते- यदि ऐसाही होवे तो रोटी आदि पदार्थोंमें पृथ्वी आदिका संबंध होते भी क्यों नहीं चेतनकी उत्पत्ति होती दूसरे जिससमय बालक उत्पन्न होता है उससमय जब उसके मुखमें स्तन दिया जाता है उससमय विनाही सिखायें वह जन्मांतरके संस्कारसे दूध पीलेता है सो कैसे ? क्योंकि तुमतो जन्मांतर मानते ही नहीं तथा अनेक मनुष्य पूर्वभवकी वस्तुओंको स्मरण करतेहुवे देखने आते हैं अतःसिद्ध होता है कि आत्मा अवश्य अनादि अनन्त है इसलिये आत्मा कथंचित भूतजनितही तुमको मानना चाहिये जब ऐसा मानोगे तो कोईदोष नहीं आसक्ता क्योंकि संसारीआत्माका संबंध देहसे अनादिकालसे चलाआता है अर्थात् कोई अवस्था संसारीजीवकी ऐसी नहीं जिसअवस्थामें देहके साथ संबंध न होवे इसलिये देह आत्माका कथंचित् अभेद होनेसे आत्मा भूतजनितभी है परन्तु देहरहित अवस्थामें वह भूतजनित न होनेसे सर्वथा भूतजनित नहीं होसक्ती ।
और वहुतसे मनुष्य इसआत्माको कर्ता मानते हैं अर्थात् उनका सिद्धान्त है कि बिना ईश्वरके यह विचित्रजगत कदापि नहीं बनसक्ता इसलिये कोई न कोई इसजगतका कर्ता अवश्य होना चाहिये उनको
आचार्य समझाते हैं कि (नोकर्तभावंगतः) अर्थात् यहकीभी नहीं होसक्ता क्योंकि यदि ईश्वर जगतका कर्ता मानाजावेगा तो उसके ईश्वरत्वमे हानि आवेगी क्योंकि यदि वह समस्तप्राणियोंका पिता है तो उसको सबोंपर समानदृष्टि रखनी चाहिये किन्तु देखने में आता है किसीके साथ उसका प्रेमपूर्वक वर्ताव होनेसे कोई राजा
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H७२
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