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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 11411 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंश्वतिका । सक्ती उसहीप्रकार जो अनन्तचतुष्टयस्वरूप खस्थतारूपी अमृतनदीमें प्रविष्ट है उसको असह्य भी संसाररूपीवड़वाभि अंशमात्र भी नहीं स्रता सक्ती ॥ १०७॥ आयातेऽनुभवे भवारिमथने निर्मुक्तमूर्त्याश्रये शुद्धेऽन्यादशि सोमसूर्यहुतभुक्कान्तेरनन्तप्रभे । यस्मिन्नस्तमुपैति चित्रमचिरान्निःशेषवस्त्वन्तरं तदन्दे विपुलप्रमोदसदनं चिडुपमेकं महः ॥१०८॥ अर्थः—समस्तकर्मादिवैरियों के नाश करनेवाले तथा शरीरआदि के आश्रयकर रहित अर्थात् जिसको किसी प्रकारके शरीर आदिका आश्रय नहीं है, और शुद्ध तथा दूसरेके प्रत्यक्षके अगोचर तथा चन्द्रमा सूर्य और अग्निसे भी अनन्तगुणी प्रभाको धारण करनेवाले जिस चैतन्यख रूप उत्कृष्टतेजके अनुभव होनेपर बात कीबात में समस्त परपदार्थ अस्त हो जाते हैं ऐसे अनेकप्रकारके प्रमोदको पैदा करनेवाले उस चैतन्यखरूपतेजको मैं शिरझुकाकर नमस्कार करता हूं ॥ १०८॥ जातिर्याति न यत्र यत्र च मृतो मृत्युर्जरा जर्जरा जाता यत्र न कर्मकायघटना नोवाग्रुजो व्याधयः । यत्रात्मैवपरं चकास्ति विशदं ज्ञानैकमूर्तिर्विभुर्नित्यं तत्पदमाश्रितो निरुपमा सिद्धाः सदा पान्तु व ॥ अर्थः- जहां पर न जन्म है, न मरण है, न जरा है, न कमका तथा शरीरका सम्बन्ध है, न बाणी है और न रोग है तथा जहाँपर निर्मलज्ञानका धारण करनेवाला और प्रभु आत्मा सदा प्रकाशमान है ऐसे उस अविनाशी पदमें रहनेवाले उपमारहित ( अर्थात् जिनको किसीकी उपमा ही नहीं दे सक्ते ऐसे ) सिद्ध भगवान् मेरी रक्षा करो अर्थात् ऐसे सिद्धोंका में शरण लेता हूं ॥ १०९ ॥ दुर्लक्ष्येपि चिदात्मनि श्रुतवलात्किंचित्स्वसंवेदमात् ब्रूमः किंचिदिह प्रबोधनिधिभिर्ग्राह्यं न किश्चिच्छलम् । मोहे राजनि कर्मणामतितरां प्रौदेन्तराये रिपौ दृग्वोधावरणद्वये सति मतिस्ताद्वक्कुतो मादृशाम् ११०॥ For Private And Personal ॥५६॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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