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॥४८॥
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पअनन्दिपश्चविंशतिका । ष्ठासे देखते हैं और वे सज्जन कहे जाते हैं इत्यादि नानाप्रकारके उत्तम फल उनको मिलते हैं जोकि सर्वथा अवर्णनीय है। इसलिये सजनोंको अवश्य ही सत्य बोलना चाहिये ॥१३॥
अब आचार्य शौचधर्मका वर्णन करते हैं।
आर्या! यत्परदारार्थादिषु जन्तुषु निस्पृहम हिसकं चेतः
दुर्भेद्यान्तमलहृत्तदेव शौचं परं नान्यत् ॥९॥ अर्थः--जो परस्त्री तथा पराये धनमें इच्छारहित है तथा किसीभी जीवके मारने की जिसकी भावना नहीं है और जो अत्यन्त दुर्भेद्य लोभ क्रोधादिमलका हरण करनेवाला है ऐसा चित्तही शौच धर्म है किन्तु उससे भिन्न कोई शौचधर्म नहीं है।
भावार्थ--गंगा आदि नदियों में खान भी किया तथा पुस्कर आदि तीर्थों में भी गये किन्तु मन लोभ आदि कर ही संयुक्त बना रहा तो कदापि शौचधर्म नहीं पल सक्ता इसलिये मनको सबसे पहले शुद्ध करना चाहिये ९४
शार्दूल विक्रीड़ित । गंगासागरपुष्करादिषु सदा तीर्थेषु सर्वेष्वपि स्नातस्यापि न जायते तनुभृतः प्रायो विशुद्धिः परा । मिथ्यात्वादिमलीमसं यदि मनो वाह्येतिशुद्धोदकैोतं किं वहुशोऽपि शुध्धति सुरापूरमपूर्णो घटः ९५
अर्थः-आचार्य कहते हैं जिसप्रकार अत्यन्तवृणित मद्यसे भराहुआ घड़ा यदि बहुतवार शुद्धजलसे धोया भी जावे तो भी वह शुद्ध नहीं हो सक्ता उसहीप्रकार जो मनुष्य वाह्यमें गंगा पुष्कर आदि तीर्थोमें स्नान करनेवाला है किन्तु उसका अंतःकरण नानाप्रकारके क्रोधादिकषायोंसे मलीमस हैं तो वह कदापि उत्कृष्ट
. दुपयेस्सपि पाठान्तरम् ।
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