________________
Shri Mahavir Jain Aradhangra
www.kcbatrth.org
Acharya Shri Kapagarsuri Gyanmandir
१५१२॥
100.000000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
पअनन्दिपश्चविंशतिका। करने में इच्छा रहती है किंतु यह मद्य जीवोंको किसीप्रकारके हितका करनेवाला नहीं है तथा दूसरे भवमें भी यह अनेक प्रकारके दुःखोंको देनेवाला है।
भावार्थ:-जिसप्रकार जोपुरुष सदा मदिराका पीनेवाला है यदि उसको किसीरीतिसे किसीसमय मादिरा न मिले तो उसको अनेकप्रकारके विकार उत्पन्न हो जाते हैं उसी प्रकार जो मनुष्य पापी है अर्थात मैथुन आदि खराब काम करने में जराभी भय नहीं करता है उस मनुष्यको सदा अभिलाषा मैथुनकर्मके करने की ही रहती है किंतु यह मैथुनकर्म किसीप्रकारके हितका करनेवाला नहीं केवल जीवोंको नानाप्रकारके अहितोंकाही करनेवाला है तथा आगामीकालमें भी यह जीवों को नानाप्रकारके भयंकर दुःखों का देनेवाला है इसलिए परभवमें भी किसीप्रकारके सुखको आशा नहीं इसलिये जो पुरुष मोक्षाभिलाषी है आत्माके सुखको चाहते हैं उनको चाहिये कि वे कदापि मैथुनकर्ममें अपनी प्रवृत्ति को नकरें ॥ ७॥
रतिनिषेधविधौ यतता भवेचपलतां प्रविहाय मनः सदा ।
विषयसौख्यमिदं विषसन्निभं कुशलमस्ति न भुक्तवतस्तव ॥ अर्थः--आचार्य महाराज उपदेश देते हैं कि जो मनुष्य अपना हित चाहते हैं उनको इसरीतिसे अपने मनको अच्छीतरह शिक्षा देनी चाहिये कि हेमन तू सदा चपलताको छोड़कर रहा तथा रतिके निषेध करने में प्रयत्नकर क्योंकि यह विषयसौख्य विषके समान है और इस विषयसुखको भोगनेवाले तेरी किसी प्रकारसे कुशल नहीं है।
भावार्थ:-जो मनुष्य विषके भक्षण करनेवाला होता है उसकी जिसप्रकार संसारमें खर नहीं रहती उसको अनेकप्रकारके दुःखोंका सामना करना पड़ता है उसीप्रकार हे मन यह विषय सुख भी मानिंद जहर के है इसलिये जो तू इसमें सुखमामकर रातदिन इसके भोगकरने में तत्पर रहता है इसमें तेरी खर नहीं
.00000000000000000000000000000000000000000000000
५१२
For Private And Personal