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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५०४॥ 06660००००००००००००००००००००0000000000000000000००००००००००० पयनन्दिपश्चविंशतिका । नो तीर्थ न जलं तदस्ति भुवने नान्यत्किमप्यस्ति तनिश्शेषाशुचि येन मानववपुः साक्षादिदं शुध्यति । आधिव्याधिजरामृतिप्रभृतिभिव्याप्तं सदा तत्पुनः शश्वत्तापकरं यथास्य वपुषो नामाप्यसह्य सताम् ।। अर्थः-यह मनुष्योंका शरीर अत्यंततो अपवित्र है तथा सदा आधि व्याधि जरा मरण आदिक उपाधियोंसे व्याप्त है और सदा तापकाकरनेवाला है तथा सज्जनपुरुष इसका नाम श्रवणमी नहीं करसकते ऐसा यह मनुष्योंका शरीर है इसलिये इसखराब शरीरके शुद्ध करने में न तो कोई उत्तमतीर्थ इससंसारमें है और न कोई इसकी साक्षात् शुहिका करनेवाला जल तथा इनसे भिन्न और भी वस्तु कोई ऐसी नहीं है जो इसशरीरको वास्तविकरीतिसे शुद्ध करसके भावार्थ:--बहुतसे भोले मनुष्य इसअत्यंत अपवित्र शरीरकी वास्तविकदशाको न जानकर दूसरोंके कहनेसुननेसे प्रयाग आदि तीर्थों में गंगाआदि नदियोंमें स्वानकर इसको पवित्र समझलेते हैं तथा कोई २ कूवें आदिके जलको ही गंगा आदिका जलमानकर तथा उसजलसे स्नानकर इसको पवित्र समझलेते हैं तथा कोई कोई तीर्थजलसे भिन्न रज आदि लगाकर ही अपने शरीरको पवित्रमानलेते हैं किन्तु आचार्यवर कहतेहैं कि यह उनमनुष्योंकी बड़ीभारी भूल है क्योंक यह शरीर इतना अपवित्र है कि इसकी बराबर संसारमें कोई चीज अपवित्र नहीं तथा यह शरीर अनेकप्रकारकी आधि ज्वर आदिक व्याधि वृद्धावस्था मरण आदि दुःखोंका घर है अर्थात् इसीके संबंधसे मनुष्योंको अनेकप्रकारके आधि व्याधि आदिक सहने पड़ते हैं तथा यह जीवोंको अनेकप्रकारके संतापोंका भी करनेवाला है इसलिये ऐसे निकृष्ट इसशरीरके पवित्र करने के लिये इससंसारमें नतो कोई तीर्थ है तथा कोई जलभी नहीं है और इनसे भिन्न और भी कोई ऐसी चीज नहीं है जो इसशरीरको पवित्र करसके इसलिये सज्जनोंको चाहिये कि वे प्रयाग आदि तीर्थोंको तथा गंगा १११०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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