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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४९६॥ पअनन्दिपश्चविंशतिका। वचनमें अवश्यही श्रद्धान रखना चाहिये ॥ ५ ॥ शार्दूलविक्रीड़ित । पर्यन्ते कृमयोऽथ बन्हिवशतो भस्मैव मत्स्यादनात् विष्टा स्यादथवा वपुः परिणतिस्तस्यदृशी जायते । नित्यं नैव रसायनादिभिरपि क्षय्येव यत्तत्कृते कः पापं कुरुते बुधोऽत्र भविता कष्टा यतो दुर्गतिः॥ अर्थः-जिस शरीरको अवस्था ऐसी होती है कि अंतसमयमें तो लटे पड़जाती हैं अथवा आग्निसे भस्म हो जाता है वा मछली आदिकोंके खानेसे विष्टास्वरूपमें परिणत हो जाता है और नित्य नहीं है तथा अनेक प्रकारकी रसायन आदिक खान परभी नष्ट हो जाता है उस शरीकेलिये ऐसा संसारमें कौन बुद्धिमान पुरुष होगा जो पाप करेगा जिस पापसे आगे अनेक प्रकारके दुःखोंको देनेवाली दुर्गति होवेगी। भावार्थ:--यदि यह शरीर अंत समयमें लट आदि कीड़ोंसे व्याप्त तथा अग्निसे भस्मखरूप और मछली आदिके खानेपर बिष्टास्वरूप, न होता तथा नित्य और रसायनादिके खानेसे विनाशीक न होता तबतो उस शरीरकेलिये अनेक प्रकारके पापोंका करना कोई खराब नहीं था किंतु यह शरीरतो मरणसमयमें अनेक प्रकारके कीड़ाओंसे व्याप्त हो जाता है तथा अग्निसे जलकर भस्म हो जाता है और जिससमय मछली आदिक जीव इसको खालेते हैं उससमय यह उनकी विष्टास्वरूपमें परिणत हो जाता है तथा नित्यभी यह नहीं है और अनेक प्रकारकी रसायन आदिकोंके खानेपरभी नष्ट होजाता है फिर ऐसा कौनसा बुद्धिमान होगा ? जो इसके लिये अनेकप्रकारके पापोंको संचय करेगा ? क्योंकि पापोंसे अनेकप्रकारके दुःखोंको देनेवाली दुर्गति की आगामी भवों में प्राप्ति होती है॥६॥ 0000००००००००००००००००००००००००००००.000000०००००००००००००००० Fil॥४९॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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