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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४९३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पदिपञ्चविंशतिका । अर्थः- यह शरीररूपी झोंपड़ा दुर्गंध तथा अपवित्र वीर्य आदि धातुरूपी भीतोंसे बनाहुवा है और चामसे ढका हुआ है तथा विष्टा मूत्र आदिसे भी भरा हुआ है और इसमें क्षुधा आदिक बलवान दुःखरूपी चूहोंने छेदकररक्खे हैं और यह अत्यंत क्लिष्ट है और इसके चारोओर जरारूपी अभि मौजूद है तो भी मूर्खजीव इसको स्थिर तथा अत्यंत पवित्र मानता है यह बड़े आश्चर्यकी बात है ॥ १ ॥ दुर्गन्धं कृमिकीटजालकालितं नित्यं स्रवद्दरसं शौचस्नानविधानवारिविहितप्रक्षालनं रुग्भृतम् । व्याप्त मानुष्यं वपुराहुरुन्नतधियो नाडीव्रणं भेषजं तत्रान्नं वसनानि पहकमहो तत्रापि रागी जनः ॥ २ ॥ अर्थः- दुर्गन्धमय तथा लट और कीड़ाओंके समूहकर व्याप्त और जिसमें चारोओरसे रक्त, पीच, आदि बहरहे हैं और जिसका प्रक्षालन पवित्रजलसे कियाजाता है और जो नानाप्रकारके रोगोंकर व्याप्त है और जिसमें औषधि अन्न और वस्त्ररूपी पट्टी है ऐसे मनुष्य के शरीरको उच्चबुद्धिके धारक मनुष्य नाडीव्रण ( घाव ) कहते हैं तो भी बड़े आश्चर्य की बात है ऐसे निकृष्ट शरीरमें भी जीव रागी बनते हैं । भावार्थः —– जिसप्रकार घाव अत्यंत दुर्गंधमय होता है और नानाप्रकारके लट कीड़े आदिकसे होता है और सदा जिसमें रक्त आदि टपकता रहता है और अत्यंत शुद्धजलसे धोया जाता है तथा जिसके ऊपर औषधि लगाई जाती है तथा पट्टी बांधी जाती है उसीप्रकार यह शरीर भी है क्योंकि यह भी नानाप्रकारकी दुर्गधोंसे व्याप्त है तथा इसमें भी नानाप्रकार के कीड़े मौजूद हैं और लोहू पीव आदिक घृणाके करनेवाले रसभी इससे सदा बहते रहते हैं और उत्तमजलसे भी इसका स्नान कराया जाता है तथा नानाप्रकारके भयंकर रोगोंका भी यह घर है अन्न रूपी औषधि भी इसके उपयोग में लाई जाती है और वस्त्ररूपी पट्टीभी इसपर बांधी जाती है परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे निकृष्ट शरीरमें भी मनुष्य राग करता है ? For Private And Personal ||४९३॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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