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पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-जो निरंतर मेरी बुद्धि एकत्वस्थिति की ओर जाती है उससे भी मुझे परमात्म संवन्धी कुछ २ आनंद उत्पन्न होता है यदि वही बुद्धि कुछकालतक समस्तशील आदि उत्तमगुणोंसे सहितहोकर रहेगी तो अवश्यही विशाल तथा देदीप्यमान है ज्ञान जिसमें ऐसी उस आनंदकी कलाको प्राप्त करैगी ॥
भावार्थ:-जबमुझे एकत्व स्थितिकी ओर बुद्धिके जानेसही परमात्मासंवन्धी कुछ ज्ञान होता है तब यदि मेरी बुद्धि कुछकालतक शील आदिगुणोंसे विशिष्ट रहेगी तो अवश्यही परमात्माके आनंदको प्राप्त होगी इसमें किसीप्रकारका संशय नहीं ॥ ३ ॥ केनाप्यस्ति न कार्यमाश्रितवता मित्रेण चान्येन वा प्रेमाङ्गेपि न मेस्ति सम्प्रति सुखी तिष्ठाम्यहं केवलः । संयोगेन यदत्र कष्टमभवत्संसारचक्रे चिरं निर्विण्णः खलु तेन तेन नितरामेकाकिता रोचते ॥४॥
अर्थ:--मेरे आश्रित जो मित्र हैं न तो मुझे उनसे कुछकाम है और न मुझे दूसरेसेभी काम है और मुझे अपने शरीरमेंभी प्रेमनहीं इससमय मैं अकेलाही सुखाहूं क्योंकि मुझै संसाररूपी चकसे मित्र आदिके संयोगसे कष्ट हुवाथा इसलिये मैं निश्चयसे उदासीनहूं और मुझे अव एकान्त स्थानही प्रिय है ॥
भावार्थ:-जवतक मेरा मित्र स्त्री पुत्र आदि परपदाथोंसे संवन्धरहा तवतक मुझै नानाप्रकारके कष्टोंका सामना करना पड़ा इसलिये अब मुझे उन मित्र तथा स्त्री पुत्र आदिपदार्थोसे कुछभी काम नहीं हैं किंतु मैं अब सर्वथा उदासीनहूं और मुझे एकांतही अच्छा लगता है ॥ ४ ॥ यो जानाति स एव पश्यति सदा चिद्रूपतां न त्यजेत् सोहं नापरमस्ति किंचिदपि मे तत्वं सदेतत् परम् । यचान्यत्तदशेषकर्मजनितं क्रोधादिकायादि वा श्रुत्वा शास्त्रशतानि सम्प्रति मनस्येतच्छूतं वर्तते॥५॥
अर्थः-जो जानता है वही सदा देखता है और जो चैतन्यस्वरूपको नहीं छोड़ता है वह मैंही हूँ
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