SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandit आ४७७॥ 4400.............." 1000000000000000000000000000000000000000०००००००.4000002 पचनन्दिपश्चविंशतिका। अर्थः-अपने आत्मस्वरूपमें तिष्ठनेवाले जिसउत्तममुनिने वीतरागमार्गमें गमनकिया है उस मुनिकी मोक्षकी प्राप्तिमें तीनोंलोकमें कोईभी विघ्न नहीं है। भावार्थ:-जवतक मुनि वीतराग मार्गमें गमन नहीं करता तबतकतो उसको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होसकती क्योंकि उसकलिये मोक्षकी प्राप्तिमें बहुतसे विघ्न आकर उपस्थित होजाते हैं किंतु जो मुनि वीतरागमार्ग में गमनकरनेवाले हैं उनको मोक्षसुखकी प्राप्तिमें तीनोंलोकमें किसीप्रकारका विघ्न आकर उपस्थित नहीं होता इसलिये मोक्ष सुखके अभिलाषी मुनियोंको वीतराग मार्गमें ही स्थित रहना चाहिये ॥१०॥ हत्यकामना नित्यं भावयन् भावनापदम् ।। मोक्षलक्ष्मीकटाक्षालिमालापद्मश्च जायते ॥ ११ ॥ अर्थः-जो मुनि इसप्रकार एकचित्तहोकर सदा ऐसी भावना करता रहता है वह मुनि मोक्षरूपीजो लक्ष्मी उसके जो कटाक्ष वेही हुवे अलिमाला (भ्रमरसमूह) उसकेलिये कमलके समान होता है। भावार्थ:--जिसप्रकार कमलपर स्वयं भैौरे आकर बैठजाते हैं उसीप्रकार जो मुनि उपर्युक्तभावनाको करने वाले हैं उनमुनियों के ऊपर मुग्धहोकर स्वयंमोक्षरूपी लक्ष्मी अपने कटाक्षपातोंको करती है अर्थात वे मुनि शीघ्रही मोक्षको प्राप्तहोजाते हैं इसलिये मुनियोंको चाहिये कि वे सदा ऐसीही भावना करते रहैं ॥११॥ एतद्धर्मफलं धर्मः स चेदस्ति ममामलः। आपद्यपि कुतश्चिंता मृत्योरपि कुतो भयम् ॥ १२ ॥ अर्थः-इस मनुष्य भवका फल धर्म है यदि मेरे वह धर्म निर्मल मौजूद हैं तो आपत्तिके आने पर भी मुझे चिंता नहीं और न मुझे मरण से ही भय है ॥ 100००००००००००००००००००.. this out . For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy