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॥४७५॥
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पन्ननन्दिपश्चविंशतिका । मोक्षएव सुखं साक्षात्तच्च साध्यं मुमुक्षुभिः
संसारेऽत्र तु तन्नास्ति यदस्ति खलु तन्न तत् ॥६॥ अर्थः-साक्षात् यदि सुख है तो मोक्षमेंही है और उससुखको मोक्षाभिलाषी ही सिद्ध करसकते हैं इससंसारमें साक्षात सुख नहीं है और जो है भी वह निश्चयसे सुख नहीं दुखही है ॥
भावार्थ:-बहुतसे मूर्खमनुष्य इन्द्रियोंसे जायमान सुख को ही साक्षात् सुख समझते हैं किन्तु वह साक्षात सुख नहीं क्योंकि वह अनित्य है तथा परिणाममें दुःखका देनेवाला है किन्तु वास्तविकमुख मोक्षही है क्यों कि वह नित्य है और निर्विकल्प है और उस सुखको जो मनुष्य मोक्षके अभिलाषी हैं वेही सिड कर सकते हैं इसलिये मोक्षाभिलाषियोंको चाहिये कि वे उससुखके लिये पूरा २ प्रयत्न करें ॥६॥
किञ्चित्संसारसंधि वंधुरं नेति निश्चयात्
गुरूपदेशतोऽस्माकं निःश्रेयसपदं प्रियम् ॥ ७॥ अर्थः-संसार संबंधीभी कोई वस्तु निश्चयसे हमको प्रिय नहीं है किन्तु श्रीगुरुके उपदेशसे हमको मोक्षपदही प्रिय है।
भावार्थः-अनेक मनुष्य संसारमें स्त्रीः, पुत्र मित्र सुवर्ण आदि पदार्थोको प्रिय मानते हैं किन्तु वे निश्चयसे हमको प्रिय नहीं हैं क्योंकि वे दुःख के देने वाले हैं यदि एक प्रिय है तो श्रीगुरुके उपदेशसे जिसका स्वरूप जानगया है ऐसा मोक्ष ही प्रिय है ॥ ७ ॥
मोहोदयविषाक्रान्तमपि स्वर्गसुखं चलम् । का कथाऽपरसौख्यानामलं भवसुखेन मे ॥८॥
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NI४७५॥
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