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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 11४७२॥ पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थ:-हे तीनभुवनके चूड़ामाणि जिनेन्द्र आपके लिये नमस्कार हो संसारके भयसे भीतहोकर मैं आपके शरणको प्राप्तहुवा हूं विहानलोगोंने जो संसारकी पीड़ाके नाशकरनेकलिये तत्व कहा है उसका मैने दृढ़चित्तसे आश्रय करलिया है अर्थात् अपने अंतरंगमें धारणकरलिया है क्योंकि इससंसारमें आपही समस्त संसारके नाशकरनेवाले हो ॥ १७ ॥ वसंततिलका। अईन् समाश्रितसमस्तनरामरादिभव्याब्जनन्दिवचनांशुरवेस्तवाग्रे । मौखर्यमेतदबुधेन मया कृतं यत् तद्भूरिभक्तिरभसस्थितमानसेन ॥ १८॥ अर्थः-हे अईन् सभामें बैठेहुवे जो समस्त मनुष्य तथा देव आदिक भव्यजीव वेही हुवे कमल उनको आनंदकेदेनेवाले हैं वचनरूपीकिरण जिनके ऐसे आप जिनदेवसूर्यके सामने जो मुझ अपंडितने वाचालता I प्रकटकी है वह अत्यंतगाढ़ जो भक्ति उसमें स्थित मनसेही की है। भावार्थ:-इसश्लोकसे आचार्यने अपनी लघुता प्रकटकी है यथा हे जिनेन्द्र जिसप्रकार सूर्यकी किरण कमलोंको आनंदके देनेवाली होती हैं उसीप्रकार आपके वचनरूपी किरणभी समवसरणमें बैठे हुवे समस्त मनुष्य देव आदि भव्यजीवों को आनंदकी देनेवाली हैं इसलिये आप सूर्यके समान हैं अतः आपके आगे मैं मूर्खहूं आपकी स्तुति करनहीं सकता किन्तु यह जो मैंने कुछ वचनोंसे वाचालता प्रकट की है वह आपकी भक्तिसे प्रेरित मनसेही की है ॥ १८ ॥ इति श्रीपद्मनंदि आचार्यद्वारा विरचित श्रीपद्मनंदिपश्चविंशतिकामें क्रियाकाण्डचूलिका नामक अधिकार समाप्त हुवा ॥ 1990.0.0.00000000000000000000000............40.00000 ॥४७२॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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