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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४५५॥ PEO200000000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००० पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । दोनों चरणोंके अग्रभागकी भूमिमें उत्तमजलसे बनाईहुई तीनधाराओंका मैं क्षेप करता हूं। भावार्थ:-जितनेभर संसारीजीव हैं उनजीवोंको जिसप्रकार अग्नि अत्यंत संतापको देनेवाली होती है उसाप्रकार जन्म जरा और मरण ये तीन अत्यंत संतापके देनेवाले हैं इसलिये इनतीनोंके विनाशकेलिये श्री जिनेन्द्रभगवानके दोनों चरणोंके अग्रभागकी भूमिमें मैं उत्तम निर्मल जलसे बनाईहुई तीनधाराओंका क्षेप करता हूं अर्थात् तीनवार जलको चढ़ाता हूं॥१॥ जलम यबद्धचोजिनपतेर्भवतापहारि नाहं सुशीतलमपीह भवामि तदत् । कर्पूरचंदनमितीव मयापितं सत्त्वत्पादपंकजसमाश्रयणं करोति ॥ २॥ अर्थः-जिसप्रकार भगवानके वचन समस्तसंसारके संतापके हरण करनेवाले हैं उसीप्रकार अत्यंत शीतल भी मैं संसारके सतापोका हरण करनेवाला नहीं हूं इसीलिये ऐसा समझकर मेरेद्वारा चढ़ाया हुआ यह कपूरमिलाहुआ चंदन हे भगवन् आपके चरणकमलोंके आश्रयको करता है। भावार्थ:-यद्यपि संसारमें चंदन भी अत्यंतशीतल पदार्थ है किंतु चंदन अपनेको आपके वचनोंके सामने अत्यंत शीतल नहीं समझता क्योंकि आपके वचनतो संसारसंबंधी समस्तसंतापोंके दुरकरनेवाले हैं किंतु ऐसा चंदन नहीं इसीलिये हे भगवन् मेरेद्वार आपके चरणकमलोंमें चढ़ायाहुआ यह कपुरमिश्रित चंदन आपके चरणकमलोंका आश्रय करता है ॥ २॥चंदनम राजत्यसौ शुचितराक्षतपुंजराजिदत्ताधिकृत्य जिनमक्षतमक्षधूर्तेः। वीरस्य नेतरजनस्य तु वीरपट्टो वद्धः शिरस्यतितरां श्रियमातनोति ॥ ३॥ अर्थः-इन्द्रियरूपी जो धूर्त उससे नहीं नष्टकिये गये ऐसे जो जिनेन्द्रभगवान हैं उनको आश्रयकर .....००००००००००००००००००००००००००००००००००००००.00000000014 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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