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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४४३॥ .....00000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पअनन्दिपश्चविंशतिका। प्राप्तकरलिया है उन मुनियों के लिये मस्तक झुकाकर नमस्कार है ॥ १ ॥ यत्सच्चक्रसुखप्रदं यदमलं ज्ञानप्रभाभासुरं लोकालोकपदप्रकाशनविधिप्रौढं प्रकृष्टं सकृत् । उद्भूते सति यत्र जीवितमिव प्राप्तं परं प्राणिभिः त्रैलोक्याधिपतेर्जिनस्य सततं तत्सुप्रभातं स्तुवे॥२॥ अर्थः-तीनोलोकके स्वामी श्रीजिनेन्द्र भगवानके में उस सुप्रभातस्तोत्रको नमस्कार करता हूं कि जो जिनेंद्रभगवानका मुप्रभात समस्तजीवोंको सुखका देनेवाला है और समस्तप्रकारके मलोंसे रहित होनेके कारण अमल है और ज्ञानकीजो प्रभा उससे देदीप्यमान है तथा समस्त लोकालोकको प्रकाश करनेवाला है और जो अत्यंत महान है और जिसके एकवारही उदित होने पर समस्त प्राणियोंको ऐसा मालूम पड़ता है कि हमको उत्कृष्ट जीवन की प्राप्ति हो जाती है अर्थात् वे अपना जीवन धन्य समझते हैं । भावार्थ:--जिसप्रकार प्रभातकाल समस्तप्राणियोंको सुखका देनेवाला होता है और अंधकारके नाश होजानेपर निर्मल होता है देदीप्यमान सूर्यकी कान्तिसे चमकीला होता है और समस्तपदार्थोंका प्रकाशक होता है और प्रकृष्ट होता है तथा जिसप्रभातकालके उदित होनेपर समस्तप्राणी अपना जीवन उत्कृष्ट समझते हैं उसीप्रकार तीनलोकके स्वामी श्रीजिनेंद्रदेवका भी प्रभात (केवल ज्ञान) है क्योंकि यह भी समस्तजीवोंको सुख का देनेवाला है (अर्थात् जिससमय केवल ज्ञान प्रगट होता है उससमय तीनौलोकके जीवोंको आनंद होता है) और ज्ञानावरणादि कर्मों के अभावसे निर्मल है तथा ज्ञानकी (अपनी) प्रभासे देदीप्यमान है और समस्त लोक तथा अलोकका प्रकाशकरनेवाला है और महान है और जिस केवलज्ञानके उदित होनेपर समस्तप्राणी अपनेको धन्यसमझते हैं उसतीनोंलोकके स्वामी श्रीजिनेन्द्रदेवके सुप्रभात (केवलज्ञान) केलिये नमस्कार है॥२॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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