SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४३६ पअनन्दिपञ्चविंशतिका । करता है क्योंकि जो जिसगुणकी प्राप्तिका अभिलाषी होता है वह अवश्य ही उसकी सेवा करता है ॥१॥ धर्मनाथतीर्थकरकी स्तुति । नमोस्तु धर्माय जिनाय मुक्तये सुधर्मतीर्थप्रविधायिने सदा यमाश्रितो भव्यजनोऽतिदुर्लभां लभेत कल्याणपरम्परां पराम् ॥ अर्थः-जिस धर्मनाथभगवानको आश्रयकर भव्यजीव अत्यंतदुर्लभ सर्वोत्कृष्ट कल्याणोंकी परंपराको प्राप्त होते हैं उन श्रेष्ट धर्मरूपीतीर्थके प्रवर्तानेवाले तथा अष्टकौके जीतनेवाले श्रीधर्मनाथभगवानको मैं मोक्षकी प्राप्तिकेलिये सर्वदा नमस्कार करता हूं ॥ १५ ॥ शांतिनाथभगवानकी स्तुति । विधाय कर्मक्षयमात्मशांतिकृज्जगत्सु यः शांतिकरस्ततोऽभवत् इति खमन्यं प्रति शांतिकारणं नमामि शांतिं जिनमुन्नतश्रियम् ॥ अर्थः-जो शांतिनाथ भगवान् अपनी आत्माकी शांतिकरनेवाले कमाँके क्षयको करके समस्त जगतमें शांतिके करनेवाले होतेहुवे ऐसे स्व तथा परको शांतिके करनेवाले और अंतरंग तथा बहिरंग दोनोंप्रकारकी लक्ष्मीके खामी सोलहवें तीर्थंकर श्रीशांतिनाथभगवानको मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं अर्थात् शांतिके देनेवाले श्रीशांतिनाथभगवान मुझे भी शांतिप्रदान करें। भावार्थ:-जबतक इसआत्माके साथ कौंका संबंध रहता है तबतक यह मेरा है यह तेरा है इस प्रकारके विकल्पोंको करताहुआ यह सदा व्याकुल ही रहाकरता है किंतु जिससमय कर्म आत्मासे जुदे हो जाते हैं उससमय विकल्पोंसे रहित होनेके कारण आत्मा शांत हो जाता है श्रीशांतिनाथभगवानने अपने तपोबलसे 000000000000000000000000000000000000000000000000000000001 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy