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१४१०॥
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पभनन्दिपञ्चविंशतिका । इतनी अधिक है कि वे भी आपकी शोभाका वर्णन नहीं करसकते और जब वेही आपकी शोभाका वर्णन नहीं करसकते तो मुझसरीखे मनुष्यों की तो बातही क्या है अर्थात् मैं तो अल्पज्ञानी हूं इसलिये मैं तो आपकी शोभा का वर्णन कर ही नहीं सकता और हे देवि हमसरीखे मनुष्यों में इतनी भी शक्ति नहीं है जो आपकेलिये जय ये दो अक्षर भी कहसकै किंतु जो हम आपकेलिये जय ये दो अक्षर कहते हैं वह हमसरीखे मनुष्योंका बड़ा भारी साहस है ऐसा समझिये ॥ ४ ॥
त्वमत्र लोकत्रयसद्मनि स्थिता प्रदीपिका बोधमयी सरस्वति
तदंतरस्थाखिलवस्तुसंचयं जनाः प्रपश्यन्ति सदृष्टयोप्यतः ॥ अर्थः--हे सरखति मातः आप तीनलोकरूपी घरमें स्थित सम्यग्ज्ञानमय उत्कृष्ट दीपक हैं जिसदीपकी कृपासे सम्यग्हाष्टजीव उन तीनोंलोकोंके भीतर रहनेवाले जीवाजीवादि पदार्थों को भलीभांति देखते हैं।
भावार्थः-नानाप्रकारके पदार्थोंसे भरेहुये घरमें यदि अंधकारके समयमें दीपक रखदिया जाय तो नेत्र वाला पुरुष जिसप्रकार दीपककी सहायतासे समस्त पदार्थों को भलीभांति देखलेता है उसीप्रकार यह तीनों लोक भी एकप्रकारका घर है तथा इसमें एक कोनेसे लेकर दूसरे कोनेपर्यंत भलीभांति जीवादिपदार्थ भरहुए हैं उस त्रिलोकरूपी घरमें समस्त पदार्थों के प्रकाशकरनेमें हे मातः आप उत्कृष्टदीपकके समान हैं क्योंकि आपकी कृपासे सम्यग्दृष्टि पुरुष त्रिलोकमें भरहुए समस्तपदार्थों को भलीभांति देखलेते हैं ॥ ५ ॥
नभःसमं वर्त्म तवातिनिर्मलं पृथुपयातं विबुधैर्न कैरिह
तथापि देवि प्रतिभासतेतरां यदेतदक्षुण्णमिव क्षणेन तत् ॥ अर्थ:-हे देवि आपका जो मार्ग है वह आकाशके समान अत्यंत निर्मल है और अत्यंत विस्तीर्ण है
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॥४१०।।
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