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॥१२॥
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www.kobatirth.org पचनन्दिपश्चविशीतका।
शार्दु विक्रीडित। हिंसा प्राणिषु कल्मषं भवति सा प्रारम्भतः सोऽर्थतः तस्मादेव भयादयोऽपि नितरां दीर्घा ततः संसृतिः। तत्रासातमशेषमर्थत इदं मत्वति यस्त्यक्तवान् मुक्तत्यर्थी पुनरर्थमाश्रितवता तेनाहतः सत्पथः ॥५२॥
अर्थः-प्राणियोंको मारनेसे पाप होता है तथा वह पाप आरंभसे होता है और वह आरंभ धनके होते संते होता है तथा धनके होते संते लोभ आदिकी उत्पत्ति होती है और लोभ आदिके होनेसे दीर्घ संसार होता है तथा संसारसे अनन्त दुःख होते हैं इसप्रकारसे सब बातें द्रव्यसे होती है इसबातको जानकर मोक्ष के अभिलाषी मुनियोंने द्रव्यका त्याग करदिया है किन्तु जिसने धनको आश्रयण किया है उसने सच्चे मार्गका नाश ही करदिया है ऐसा समझना चाहिये ।। ५२ ॥ दुर्थ्यानार्थमवद्यकारणमहो निग्रन्थताहानये शय्याहेतुतृणाद्यपि प्रशमिनां लजाकरं स्वीकृतम् । यत्तत्किं न गृहस्थयोग्यमपरं स्वर्णादिकं साम्प्रतं निर्ग्रन्थेष्वपि चैतदस्ति नितरां प्रायःप्रविष्टः कलिः॥५३॥
अर्थः-आचार्य कहते हैं निग्रंथमुनि शय्याके कारण यदि घासआदिको भी स्वीकार करलें तो वह स्वीकार भी उनके खोटे ध्यानकेलिये होता है तथा निन्दाका करनेवाला और निर्ग्रथतामें हानि पहुंचानेवाला होता है तथा लज्जाको करनेवाला भीहोता है तब वे निग्रंथ यतीश्वर गृहस्थके योग्य सुवर्णआदिको कब रख सक्ते हैं ? यदि इसकालमें निग्रंथ सुवर्ण आदिको रक्खे तो समझना चाहिये कि यह कलिकालका ही माहात्म्य है ।। ५३ ।।
आर्या। कादाचित्को बंधः क्रोधादेः कर्मणः सदा सङ्गात् । नातः कापि कदाचित्परिग्रहप्रहवतां सिद्धिः ॥५॥
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