SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४०॥ +++++ ++++++++++++++++++ệt 4669 पचनन्दिपश्चविंशतिका । रष्टे त्वयि जिनवर रहस्यरसो मम मनसि योजातः मानंदाश्रुमिषात् स ततो निस्सरति बहिरंतः ॥ अर्थ:-हे जिनेश आपके देखनेसे जो मेरे मनमें रहस्यरस (प्रेमरस) उत्पन्न हुवा है वह प्रेमरस आमंदाश्रुओंके व्याजसे भीतरसे बाहिर निकलता है ऐसा मालूम होता है। भावार्थ:-हे प्रभो हे दीनवन्धो मैं जिससमय आपको देखता हूं उससमय मेरे मनमें इतना आपक आनंद होता है कि मारे आनंदके मारे मेरी आखोंमें आंसू निकल आते हैं किंतु मैं उनको आनंदाश्रु नहीं कहता क्योंकि मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आनंदके आसुओंके व्याजसे भीतर न अमाता हुवा प्रेमरसही बाहर निकलता है ॥२२॥ दिवे तुमम्मि जिणवर कल्लाणपरंपरा पुरो पुरिसे संचरह अणाहुयावि ससहरे किरणामालब्व । रटे स्वयि जिनवर कल्याणपरंपरा पुरः पुरुषस्य चरति, अनाहूतापि शशधरे किरणमाला इव ॥ अर्थ:-हे प्रभो जिनेन्द्र जिसप्रकार चंद्रमामें किरणोंकी माला (पंक्ति) आगे गमन करती है उसी प्रकार आपके दर्शनसे पुरुषोंके सामने विना बुलाये भी कल्याणोंका परंपरा आगे गमन करती है। भावार्थ:-जो मनुष्य आपका दर्शन करता है उसको इसभवमें तथा परभवमें नाना प्रकारके कल्याणों की प्राप्ति होती है ॥२३॥ दिखे तुमम्मि जिणवर दिसवल्लीओ फलंति सव्वाओ इ8 अहुल्लियाविह वारसइ सुपणपि रयणहिं॥ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000 6666666666666% ५६ S४०१॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy