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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । देखने पर मैं दर्शनविशुद्धिको प्राप्त हुआ और इससमय जितनेभर बाह्यपदार्थ हैं वे मेरे नहीं हैं ॥ १९ ॥ दि तुमम्मि जिणवर अहियं सुहिया समुज्जला होई जणदिठ्ठी को पेच्छइ तहंसणसुहयरं सूरं ॥ दृष्टे त्वथि जिनवर अधिकं सुखिता समुज्ज्वला भवति ॥३९९ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जनदृष्टिः कः प्रेक्षते तद्दर्शनसुखकरं सूरम् ॥ अर्थः- हे भगवन् आपको देखकर मनुष्योंकी दृष्टि अधिक सुखी तथा अत्यंत निर्मल होती है इसलिये दर्शनको सुखके करनेवाले सूर्यको कौन देखता है ? अर्थात् कोई नहीं । भावार्थः यद्यपि संसार में आप तथा सूर्य दोनों ही प्रतापी हैं और दोनों ही देखनेयोग्य पदार्थ हैं किंतु हे प्रभो जब आपके दर्शनसे ही मनुष्यों की दृष्टि अधिक सुखी तथा अत्यंत खच्छ हो जाती है तब सूर्यके देखनेकी क्या आवश्यकता है ? ॥ २० ॥ दिट्टे तुमम्मि जिणवर वुहम्मि दोसोज्झियम्मि वीरम्मि कस्स किल रमइ दिट्टी जडम्मि दोसायरे खत्थे ॥ दृष्टे त्वयि जिनवर बुद्धे दोषोज्झिते वीरे कस्य किल रमते दृष्टिः जडे दोषाकरे खस्थे ॥ अर्थः — हे जिनेन्द्र ज्ञानवान समस्तदोषोंकर रहित और वीर ऐसे आपको देखकर ऐसा कौन मनुष्य है जिसकी दृष्टि जड़ तथा दोषाकर और आकाशमें रहनेवाले ऐसे चंद्रमार्गे प्रीतिको करै । भावार्थः -- यद्यपि चंद्रमा भी मनुष्योंको आनंदका देनेवाला है किंतु हे प्रभो चंद्रमा ज्ञानरहित जड़ है और दोषाकार है तथा आकाशमें ऊपर रहनेवाला है और आप ज्ञानवान हैं अर्थात् ज्ञानस्वरूप हैं और For Private And Personal ।। ३९९॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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