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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । कार दृष्टिका प्रतिरोधक (रोकनेवाला) है उसीप्रकार जबतक मोहका प्रभाव इस आत्माके ऊपर पड़ा रहता है तबतक वस्तुका अंशमात्रभी वास्तविक स्वरूप नहीं मालूम पड़ता किंतु हेप्रभो जिससमय आपके दर्शन होजाते हैं उससमय बलवानभी मोहरुपी अंधकार पलभरमें नष्ट होजाता है और ऐसा सर्वथा नष्ट होजाता है कि वस्तुका वास्तविक स्वरूप दीखने लगजाता है ॥२॥
दिढे तुमम्मि जिणवर परमाणंदेण पूरियं हिययं मज्झ तहा जहमग्गे मोक्खंपिव पत्तमप्पाणं ॥
रष्टे स्वथि जिनवर परमानंदेन पूरितं हृदयं
मम तथा यथा मन्ये मोक्षमपि वा प्राप्तमात्मानम् ।। अर्थः-हेजिनेन्द्र हेप्रभो आपके देखनेसे परमानन्दसे भरहुवे मैं अपने मनको ऐसा मानता हूँ मानों मैं ही मोक्षको साक्षात् प्राप्त होगया हो ।
भावार्थ:-जिससमय मेरा आत्मा मोक्षको प्राप्त होजाय तथा जैसा उसको वहां पर आनंद मिले उसी प्रकार हे प्रभो मुझे आपके देखनेसे आनंद मालूम पड़ता है अर्थात् आपके दर्शनसे पैदा हुवा सुख तथा मोक्षका सुख ये दोनों सुख बराबर हैं किंतु इनमें किसी प्रकारका भेद नहीं ॥३॥
दिहे तुमम्मि जिणवर णहँ चिय मण्णय महापावं रविउग्गमे निसाए ठाइ तमो कित्तियं कालं ॥
दृष्टं त्वयि जिनवर नष्टे चैव शात महापापम्
रब्युद्गमे निशाया: तिष्ठेत् तमः कियेतं काळम् ।। अर्थः-हेजिनवर आपके देखनेपर प्रबलपाप नष्ट होगया ऐसा मुझे मालूम हुवा सो ठीक ही है
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