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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३८॥ 00000000000000000000666००००० पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । आपसे भिन्न कोई भी व्यक्ति पुरुषोत्तम नहीं है ॥ १॥ और भी आदिनाथ स्तोत्रमें कहा है त्वामव्ययं विभुमचिंत्यमसंख्यमाद्यं ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति सन्तः ॥ अर्थः-हे भगवन् आप नाशकर रहित हैं तथा विभु हैं अर्थात् आपका ज्ञान सर्व जगहपर व्यापक है और आप अचिन्त्य हैं अर्थात् आपका भलीभांति कोई चिंतवन नही कर सकता और आप असंख्य हैं तथा आप सबके आदिमें हुए हैं और आप ब्रह्मा हैं तथा ईश्वर हैं और अंतकर रहित हैं तथा आप कामदेव स्वरूप हैं और समस्त योगियोंके ईश्वर हैं तथा आप प्रसिद्धध्यानी हैं और आप अपने गुणोंकी अपेक्षा व्यवहारनयसे अनेक हैं तथा परमशुहनिश्चयनयकी अपेक्षा एक हैं और आप ज्ञानस्वरूप है तथा निर्मल हैं ऐसा उत्तम पुरुष कहते हैं॥५॥ तं चेव मोक्खपयवी तं चिय सरणं जणस्स सव्वस्स तं णिकारणविदो जाइजरामरणवाहिहरो ॥ त्वं चैव मोक्षपदवी त्वंचैव शरणं जनस्य सर्वस्य त्वं निष्कारणवैद्यः जातिजरामरणव्याधिहरः ।। अर्थ:-हे भगवन् हे जिनेश आप ही तो मोक्षके मार्ग हैं तथा समस्त प्राणियोंके आप ही शरण हैं और समस्त जन्म जरा मरण आदि रोगोंके नाश करनेवाले आप ही बिना कारणके वैद्य है॥५३ ॥ किच्छाहि समुवलद्धे कयकिच्चा जम्मि जोहणो होंति तं परमकारणं जिण ण तुमाहिंतो परोअस्थि ॥ .0000000000000000000000000 ३८३॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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