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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ....००००००००००००००००००००००००००००००००००.................. पचनन्दिपञ्चविंशतिका । वियलइ मोहणधूली तुह पुरओ मोहठगपरिदृविया पणवियसीसाउ तओ पणवियसीसा वुहा होंति ॥ विगलति मोहनलिस्तव पुरतो मोहठकस्थापिता प्रणभितशीन ततः प्रणमितशीर्षा बुधा भवंति ॥ अर्थः-हे भगवन् हे प्रभो जो भव्यजीव आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं उनकी मोहरूपी ठगसे स्थापित मोहन रूपी धूली आपके सामने बातकी बातमें नष्टहो जाती है इसीलिये विहान पुरुष आपको नमस्कार करतेहैं भावार्थ:-जिन जीवोंकी आत्मा पर जबतक मोहरूपी भयंकर तथा दुर्जय ठगद्वारारचित मोहनधूली विद्यमान रहती है तबतक उन जीवोंको अंशमात्र भी हेयोपादेयका ज्ञान नहीं होता किंतु वे विक्षिप्तके समान यह पुत्र मेरा है यह स्त्री मेरी है और यह द्रव्य मेरा है ऐसे असत्यविकल्पोंको सदा किया करते हैं किंतु हे प्रभो जिससमय वे भव्यजीव आपको मस्तक नवाकर विनयसे नमस्कार करते हैं उससमय आपके सामने प्रबल भी उस मोहरूपी ठगकी कुछ भी तीन पांच नहीं चलती अर्थात् वह आपको नमस्कार करनेवाले भव्यजीवों के ऊपर अंशमात्र भी मोहनधूली नहीं डालसकता इसीलिये उत्तम विहानपुरुष आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं ५०॥ वंभप्पमुहा सण्णा सव्वा तुह जे भणंति अण्णस्स ससिजोण्णा खजोए जडेहि जोडिजये तेहिं ।। माप्रमुखाः संशाः सर्वाः तब ये भणति अन्यस्य शशिज्योत्स्ना खद्योते जडैः युज्यते तैः । अर्थः-हे प्रभो हे जिनेन्द्र ब्रह्मा विष्णु आदिक जो संज्ञा सुनने में आती हैं वे आपकीही हैं अर्थात् आप ही ब्रह्मा हैं तथा आप ही विष्णु हैं तथा बुद्ध आदिक भी आप ही हैं किंतु जो मनुष्य ब्रह्मा विष्णु आदि .............100.0000000०.०००००००००००००००००००००००००० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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