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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २७९।। www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । जो पुरुष आपके चरणकमलोंको शिर झुकाकर नमस्कार करते हैं उनको लक्ष्मी की प्राप्ति होती है वे लक्ष्मीवान बन जाते हैं इसलिये हे प्रभो जो यह संसारमें किंवदंती प्रसिद्ध है कि लक्ष्मीकमलमें निवास करती है. यहबात सर्वथा असत्य है किंतु वह आपके चरणकमलोंमें ही रहती है अन्यथा भव्यजीव लक्ष्मीवान कैसे हो सकते हैं ॥ ४६ ॥ जे कमकुवलयहरिसे तुमम्मि विदेसिणो स ताणंपि दोसो ससिम्मि वा आहयाण जह वाहिआवरणं ॥ ये कृतकुवलयद्दर्षे त्वयि विद्वेषिणः स तेषामपि दोषः शशिनि इव आहतानां यथा वाह्यावरणम् ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थः- चंद्रमा तो सदा पृथ्वीको (रात्रिविकासी कमलोंको) आनंदका ही देनेवाला है किंतु जो मनुष्य रोग ग्रस्त हैं वे चंद्रमासे घृणा करते हैं सो जिसप्रकार उस घृणा के करनेमें उनके वाह्य आवरणका ( उनके रोगका) ही दोष है चंद्रमाका दोष नहीं । उसीप्रकार हे जिनेंद्र आपतो समस्त भूमंडलको आनंद के करनेवाले हैं यदि ऐसा होनेपर भी कोई भूर्ख आपसे विद्वेष करै तो वह उसीका दोष है इसमें आपका कोई भी दोष नहीं ॥ ४७ ॥ को इहहि उच्चरंति जिण जयसंहरणमरणवणसिहिणो तुह पयथुरणिज्झरणीवारणमिणमो ण जइ होंति ॥ क इइहि उद्धरति जिन जगत्संहरणमरणवन शिखिनः तव पादस्तुति निर्झरिणीवारणमिदं न यदि भवति ॥ अर्थः- हे भगवन् हे प्रभो आपके चरणोंकी स्तुति वही हुई नदी उससे यदि वारण बुझाना नहीं होता For Private And Personal ।।३७९ ॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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