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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थ:- -जबतक इस आत्मामें अखंडज्ञान (केवलज्ञान ) की प्रकटता नहीं होती तबतक यह आत्मा लोक तथा अलोकके पदार्थों को नहीं जानसकता किंतु जिससमय उसकेवलज्ञानकी प्रकटता हो जाती है उस समय यह लोकालोकके पदार्थोंको जानने लगजाता है तथा उस सम्यग्ज्ञानकी प्रकटता तेरवे गुणस्थानमें, जबकि प्रकृष्टध्यान से चार घातियाकमका नाश हो जाता है तब होती है इसीआशयको लेकर ग्रंथकार स्तुति करते हैं कि हे प्रभो आपने प्रकृष्टध्यानसे चार घातियाकमोंका नाश करदिया है इसीलिये आप समस्त लोकालोक के भलीभांति जाननेवाले हुए हैं ॥ १९ ॥ ॥ ३६१ ।। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir आवरणाईण तर समूलमुन्मूलिया दण कम्मच उकेणमुअंव नाद भीपेण सेसेण ॥ आवरणादीनि त्वया समूलमुन्मूलितानि दृष्ट्वा कर्मचतुष्केण मृतवत् नाथ भीतेन शेषेण ॥ अर्थः- हे प्रभो है जिनेन्द्र जिससमय आपने जड़सहित ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोंका सर्वथा नाश कर दिया था उससमय उन सर्वथा नष्ट ज्ञानावरणादि कर्मोंको देखकर शेषके जो चार घातियारदे वे भयसे आपकी आत्मामें मेरेहुए के समान रहगये । भावार्थ:--- जिससमय ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अंतराय, इन चारकर्मीका सर्वथा नाश हो जाता है उससमय शेष जो वेदनीय, आयुः, नाम, तथा गोत्र, ये चार अघातियाकर्म हैं वे बलहीन रहजाते हैं। इसी आशयको मनमें रखकर ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे भगवन् जो अघातियाकर्म आपकी आत्मामें मृतके समान अशक्त होकर पड़ेरहे उनकी अशक्तताका कारण यह है कि जब आपने अत्यंत प्रबल चार घातिया For Private And Personal ॥३६२॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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