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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-हे जिनेश हे प्रभो आपनेही यह पृथ्वी सनाथकी क्योंकि यदि ऐसा न होता तो नवीन मेघके समयमें होनेवाला जो श्वासोच्छ्वास उसके वहानेसे इसमें रोमांच कैसे हुवे होते ? भावार्थ:-जो स्त्री विवाहकी अत्यंत अभिलाषिणीहै यदि उसका विवाह होजावे अर्थात् वह सनाथा हो जाय तो जिसप्रकार उसके शरीरमें रोमांच उद्गत होजाते हैं और उस रोमांचके उद्गमसे उसकी सनाथता का अनुमान करलिया जाता है उसीप्रकार हे प्रभो जिससमय आप इसपृथ्वीपर अवतीर्ण हुवे थे उससमय पृथ्वी में रोमांच हुवे इसलिये उन रोमांचोंसे यह बात जानली थी कि आपने इसपृथ्वीको सनाथा अर्थात् नाथसहित किया।॥१४॥ विज्जुव्व घणे रंगे दिपणिहा पणचिरी अमरी जइया तइयावि तये रायसिरी तारिसी दिहा॥ विशुदिव घने रंगे दृष्टप्रणष्टा प्रनत्यत्ती अमरी यदा तदापि त्वया राज्यश्रीः तारशी दृष्टा । अर्थः-हे वीतराग जिसप्रकार मेघमें विजली दीखकर नष्ट हो जाती है उसीप्रकार आपने जिससमय नत्यकरती हुई नीलांजसा नामकीदेवांगनाको पहिले देखकर पीछै नष्ट दुई देखी उसीसमय आपने राज्य लक्ष्मी को भी वैसाही देखा अर्थात् उसको भी आपने चचल समझ लिया । भावार्थ:-किसीसमय भगवान सिंहासन पर आनंदसे विराजमानथे और नीलांजसा नामकी अप्सरा का नाच देखरहे थे उसीसमय अकस्मात वह अप्सरा लीन हो पुनः प्रकट हुई इस दृश्यको देखकर ही भगवानको शीघ्र ही इसबातका विचार हुवा कि जिसप्रकार यह अप्सरा लीनहोकर तत्कालमें प्रकट हुई है उसी प्रकार इसलक्ष्मी का भी स्वभाव है अर्थात् यहभी चंचल है अतएव उससमय शीघही भगवानको वैराग्य हो गया उसी अवस्थाको ध्यानमें रखकर ग्रंथकारने इसश्लोकसे भगवानकी स्तुति की है॥१५॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३५८॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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