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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३५॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपश्चविंशतिका । सकलसुरासुरमाणिमुकुटकिरणैः कर्बुरितपादपीठ खां धन्याः प्रक्षते स्तुवंति जति ध्यायति जिमनाथ । अर्थः-समस्त जो सुर तथा असुर उनके जो चित्रविचित्र मणियोंकर सहित मुकुट, उनकी जो किरणे उनसे करित अर्थात् चित्रविचित्र है सिंहासन जिनका ऐसे हे जिननाथ जो मनुष्य आपको देखते हैं और आपकी स्तुति करते हैं तथा आपका जप और ध्यान करते हैं वे मनुष्य धन्य हैं । भावार्थ:-हे जिनेंद्र आपको वड़े २ सुर असुर भी आकर नमस्कार करते हैं इसलिये हरएक मनुष्यको आपके दर्शनका तथा आपकी स्तुतिका और आपके जप तथा ध्यानका सुलभरीतिसे अवसर नहीं मिलसकता किंतु जो मनुष्य ऐसे पुण्यवान हैं जिनको आपका दर्शनमिलता है और आपकी स्तुति तथा जप और ध्यानका भी अवसर मिलता है वे मनुष्य संसारमें धन्य हैं अर्थात् उनमनुष्योंको धन्यवाद है ॥२॥ इसीश्लोकके तात्पर्यको लेकर कहींपर कहा भी हैयःपुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलोचनैः सोर्च्यते यस्तं वंदति एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वन्द्यते ॥ यस्तं स्तोति परत्र वृत्तदमनस्तोमेन संस्तूयते यस्तं ध्यायति वलुप्तकर्मनिधनः स ध्यायते योगिभिः। अर्थः-जो मनुष्य जिनेंद्रभगवानकी फूलोंसे पूजन करता है वह मनुष्य परभवमें मंदहास्यसहित ऐसी जो देवांगना उनके नेत्रोंसे पूजित होता है और जो मनुष्य एकबारभी जिनेंद्रको वंदता है वह मनुष्य रात दिन तीनों लोकमें वंदनीय होता है अर्थात् तीनोंलोक आकर उसकी वंदना करता है तथा जो मनुष्य एकबार भी निनेंद्रभगवानकी स्तुति करता है परलोकमें बड़े २ इंद्र उसकी स्तुति करते हैं और जो मनुष्य एकबार भी जिनेंद्रभगवानका ध्यान करता है वह समस्तकोसे रहित होजाता है तथा बड़े २ योगीश्वर भी उसमनुष्यका ध्यान करते हैं इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे भगवानकी पूजन तथा वंदना और स्तुति तथा ध्यान सर्वदा किया करें ॥१॥ 000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००.00000000017 ॥५०॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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