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पचनन्दिपश्चविंशतिका । रम्भास्तम्भभृणालहेमशशमृन्नीलोत्पलाद्यैः पुरा यस्य स्त्रीवपुषः पुरः परिगतैः प्रासा प्रतिष्ठा न हि । तत्पर्यंतदशां गतं विधिवशात्क्षिप्तं क्षतं पक्षिभिभीतैश्छादितनासिकःपितृवने दृष्टं लघु त्यज्यते ॥१३॥
अर्थः--जिस स्त्रीके शरीरके आगे प्राप्त ऐसे केलोंका स्तंभ, कमलका तंतु, वरफ, चंद्रमा और नीलकमल आदिकोने भी पहिले प्रतिष्ठा नहीं पाईथी वही स्त्रीका शरीर जिससमयं मृतशरीर वमजाता है और जब वह इमसान भूमिमें फेंकदियाजाता है और जिससमय पक्षी उसके टुकड़े कर देते है उससमय वह देखा हुआ शरीर, भयभीत तथा जिनकी नाक ढकी हुई हैं ऐसे मनुष्योंके द्वारा शीघ्र ही छोड़ दिया जाता है ॥ १३॥
भावार्थ:-जबतक स्त्रीका शरीर जीवितशरीर रहता है तबतकतो इतना मनोहर रहता है कि केलोंका स्तंभभी उसके सामने कोई चीज नहीं, और न कमल तंतुही कोई चीज है तथा शीतल इतमा होता है कि वरफ चंद्रमा तथा नीलकमलकीभी शीतलता उसके सामने कोई चीज नहीं। किंतु वही शरीर जब मृतशरीर वन जाता है उससमय वह श्मसानभुमिमें फेंक दिया जाता है और पक्षिगंण उसके टुकड़े उड़ा देते हैं और मनुष्य उसको भयभीत होकर तथा नाक ढ़ककर देखते है और शीघही छोड़देते हैं इसलिये ऐसे. अपवित्र तथा अनित्यशरीरमें मुनियोंको कभी भी रागनहीं करना चाहिये॥१३॥
और भी इसीविषयमें आचार्य कहते हैंअंगं यद्यपि योषितां प्रविलसत्तारुण्यलावण्यवषावत्तदपि प्रमोदजनकं मूढास्ममां मो सताम् । उच्छूनैर्बहुभिः शवरातितरां कीर्ण श्मसानस्थलं लब्ध्वा तुष्यति कृष्णकाकनिकरो मो राजहंसग्रजः॥१॥
अर्थः यद्यपि स्त्रियोंका शरीर मनोहर योवनअवस्था तथा लावण्यकर सहितभी है, और अनेक प्रकार के भूषणोंसे भूषितहै तोभी वह मूढ़बुद्धिपुरुषोंको ही आनंदका देनेवाला है किंतु सज्जनपुरुषोंको आनंदका
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