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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३३६॥ 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका । संयम न होवे तो ब्रह्मचर्यका नाश होता है ऐसा समझना चाहिये ॥४॥ चेतः संयमनं यथावदवनं मूलव्रतानां मतं शेषाणां च यथावलं प्रभवतां बाह्य मुनानिनः तजन्यं पुनरांतरं समरसीभावेन चिच्चतसो नित्यानंदविधायिकार्यजनकं सर्वत्र हेतुर्द्धयम् ॥५॥ अर्थः-ज्ञानीमुनिके यथाशक्ति होनेवाले जो भूलगुण तथा उत्तरगुण हैं उनको यथायोग्य जो रक्षण करना है वह तो बाद्य मनका संयम है तथा उसबाह्यमनके संयमसे उत्पन्न हुवा और सदा आनेदके करनेवाले कार्यको पैदाकरनेवाला “चैतन्य तथा मनके समरसीभावसे, जो मनका संयम होता है वह अंतरंगमनका संयम है तथा सबजगह यह दोनों प्रकारका संयम कारण है ॥ ५॥ समस्तत्रियोंके त्यागकरने में व्रतीको अत्यंत प्रयत्न करनाचाहिये इसबातको आचार्यवर दिखाते हैं। येतोभ्रांतिकरी नरस्य मदिरापीतिर्यथा स्त्री तथा तत्संगेन कुतो मुनेव्रतविधिः स्तोकोऽपि सम्भाव्यते । तस्मात्सहातपातभीतमतिभिः प्राप्तैस्तपोभूमिकां कर्तव्यो वातभिः समस्तयुवातत्यागे प्रयत्नो महान् । अर्थः-जिसप्रकार मदिराकापान मनुष्यको भ्रांतिका करनेवाला होता है उसीप्रकार स्त्रीभी मनुष्य के चित्तको भ्रांतिकी करनेवाली होती है इसलिये उस स्त्रीकी संगतिसे मुनीके थोड़ेभी व्रतके विधानकी संभावना नहीं होसक्ती इसलिये आचार्य कहते हैं कि जिनमुनियोंकी मति संसारमें भ्रमणकरनसे भयभीत है और जो मुनि तपकी भूमिकाको प्राप्तहोगये हैं उनको समस्तस्त्रियोंके त्यागमें वड़ाभारी प्रयत्न करनाचाहिये । भावार्थ:-निसप्रकार शराबको पीनेवाला मनुष्य बेहोश रहता हैं और वह कुछभी काम नहीं करसक्ता उसीप्रकार स्त्रीका लोलुपी पुरुषभी हिताहितसे शून्य तथा किंकर्तव्यता विमूढ़ रह्ता है इसलिये ऐसी निकृष्ट स्त्रीकी संगतिसे थोड़ासामी व्रतका विधान नहीं होसक्ता अतः आचार्य उपदेश देते हैं कि जिनमुनियोंकी 14...........000000००००००००००००००००००००००००००००००००००." 1३३६॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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