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॥२१॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । बिगाड़ नहीं करते किन्तु जिससमय वे दुष्ट हो जाते हैं उससमय उनसे उत्पन्नहुई प्रीति मनुष्योंको नानाप्रकारके दुःखोंका अनुभव कराती है इसलिये सज्जनोंको चाहिये कि वे किसी भी दुष्ट के साथ संबंध न करें ॥ ३५ ॥
कलावेकः साधुर्भवति कथमप्यत्र भवने सचाधातः क्षुद्रेः कथमकरुणैर्जीवति चिरम् ।।
अतिग्रीष्मे शुष्यत्सरसि विचरच्चञ्चुरतया बकोटानामग्रे तरलशफरी गच्छति कियत् ॥३६॥
अर्थः--जिससमय ग्रीष्मऋतुमें तलावोंका पानी सूखजाता है उससमय पानीके अभावसेही विचारी मछलियां मरजाती हैं यदि दैवयोगसे दश पांच बच भी रहैं तो लंबी चोंचोंके धारी बगले उनको बातकी बातमें गटक जाते हैं इसलिये ग्रीष्मऋतुमें मछलियोंका नामनिशान दृष्टिगोचर नहीं होता उसीप्रकार प्रथमतो इसकलि कालमें सज्जन उत्पन्नहीं नहीं होते यदि दैवयोगसे एक दो उत्पन्न भी होते हैं तो दयारहित दुष्टपुरुषोंके फन्दमें फँस कर अधिक समय तक जीने नहीं पाते इसलिये इसकलिकालमें प्रायः सज्जनोंका अभावसा ही है ।। ३६ ॥
इह वरमनुभूतं भूरि दारिद्रयदुःखं वरमतिविकराले कालवत्के प्रवेशः। भवतु वरमितोऽपि क्लेशजालं विशालं न च खलजनयोगाजीवितं वा धनं वा ।। ३७॥ अर्थ:-आचार्य कहते हैं कि संसार में दरिद्रताका दुःख भोगना अच्छा है अथवा मरजाना अच्छा है वा और भी सांसारिक नानाप्रकार की पीड़ाओं का सहन करना उत्तम है किन्तु दुष्टजनके संबंधसे जीना तथा दुष्टजनके साथ धन कमाना उत्तम नहीं ॥ ३ ॥
अब आचार्य मुनिधर्मका वर्णन करते हैं। आचारो दशधर्मसंयमतपोमूलोत्तराख्यागुणाः मिथ्यामोहमदोज्झनं शमदमध्यानाप्रमादस्थितिः। वैराग्यं समयोपवृंहणगुणा रत्नत्रयं निर्मलं, पर्यन्ते च समाधिरक्षयपदानन्दाय धर्मों यतेः ॥३८॥
अर्थः-जिसधर्ममें दर्शनाचार ज्ञानाचार चारित्राचार तप आचार, वीर्याचार इसप्रकार पांच प्रकारके
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