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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२८५ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ पवनन्दिपञ्चविंशतिका । भेदबोधदहने हृदिस्थिते योगिनोझटिति भस्मसादुभवेत् ।। अर्थः--पवित्र समाधिरूपीपवनसे उदयको प्राप्त, ऐसे भेदज्ञानरूपीअग्निके, योगीके हृदयमें स्थित होने पर प्रबल भी कर्मरूपी सूखेतृणोंका समूह शीघही भस्मीभूत हो जाता है। भावार्थ--जिसप्रकार सूखेतृणों में पड़ीहुई थोड़ीप्ती भी चिनगारी (अग्निका फुलिंगा) जिससमय पवनकी सहायतासे बढ़जाती है उससमय बहुत भी तृणों के समूहको पलभरमें भस्म करदेती है उसीप्रकार जिससमय मुनियोंके मनमें (मेरी आत्मा भिन्न है और ये स्त्री पुत्र मित्र आदिपदार्थ भिन्न है ऐसा) खपरका भेदविज्ञान समाधिरूपीपवनसे उदयको प्राप्त हो जाता है उससमय जितने कर्मों का आत्माके साथ संबंध मोजूद है वे सभस्त कर्म पलभर में नष्ट हो जाते हैं इसलिये जिनमुनियोंको अपनी आत्मासे काँके जुदेकरमेकी अभिलाषा है उन को चाहिये कि वे निर्मलसमाधिसे भेदज्ञानको उदितकरैं जिससे उनके समस्तकर्म आत्मासे शीघ्र जुदे होजावे॥३॥ अब आचार्य इसबातको बताते हैं कि समाधिरूपीकल्पवृक्ष मुनियोको बांछितफलका देनेवाला है । चित्तमत्तकरिणा न चेद्धतो दुष्टबोधवनबन्हिनाथवा योगकल्पतरुरेष निश्चितं वाञ्छितं फलति मोक्षसत्फलम् ॥ अर्थः-यदि यह समाधिरूपी कल्पवृक्ष मनरूपीमतवाले हाथीसे नष्ट न किया जाय और दुष्टज्ञान, (मिथ्याज्ञान) रूपी बनाग्निसे भस्म न कियाजाय तो वह अवश्य ही वांछित मोक्षरूपी श्रेष्ठफलको देता है। ___ भावार्थ:-जिसप्रकार बनमें खड़ेहुए कल्पवृक्षको यदि मत्तहाथी नष्ट न करै अथवा बनकी अग्नि भस्म न करै तो वह अवश्यही उत्तम तथा मिष्टफलको देता है उसीप्रकार यह समाधि भी यदि खोटे विषयोंमें प्रवृत्त मनसे नष्ट न होवे और मिथ्याज्ञानपूर्वक न कीजाय तो अवश्यही मोक्षके देनेवाली होती है इसलिये जो मुनि 040444......................... ...........66ATY २८५॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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