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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । भावार्थ:--पापसे भयभीतहोकर करोड़ों मनुष्य काशी प्रयाग आदि स्थानोंपर गंगा आदि नदियों में स्नान करते हैं तथा अपनेको मलरहित शुद्धमानते हैं परंतु गंगा आदि नदियोंमें स्नान करनेसे बाह्यमलका ही नाश होता है किंतु रागद्वेष आदि अंतरंगमलका नाश नहीं होता और वास्तविकरीतिसे अंतरंगमलका नाशही वास्तविक सुखका मूल है इसलिये आचार्यवर उपदेश देतहैं कि हे भव्य जीवो यदि तुम अंतरंगमलका नाशकरना चाहते हो तो तुमको इस परमपवित्र आत्मारूपी तीर्थमें ही स्नान करना चाहिये क्योंकि जो अंतरंगमल दूसरे २ करोड़ों तीयों में स्नान करनेपरभी नष्ट नहीं होता वह अंतरंगमल आत्मरूपी पवित्रतीर्थमें एकबारही स्नान करनेसे निश्चयसे पलभरमें नष्ट होजाता है ॥ २८ ॥
चित्समुद्रतटवद्धसेवया जायते किमु न रत्नसंचयः ।
दुःखहेतुरमुतस्तु दुर्गतिः किं न विप्लवमुपैति योगिनः॥ २९ ॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि जो पुरुष बड़े उत्साहकैसाथ चैतन्यरूपी समुद्रके तीरकी भलीभांति सेवा करते हैं क्या उनको सम्यकुदर्शन आदि रत्नों की प्राप्ति नहीं होती है अवश्यही होती है तथा इस पायेहुवे रत्नसमूहसे चैतन्यरूपी समुद्रकी सेवाकरनेवाले मुनियोंकी क्या नानाप्रकारके दुःखों को देनेवाली नरक आदि खोटी गतियोंका नाश नहीं होता ? अवश्य ही होता है।
भावार्थ:-जिसप्रकार समुद्रकी पारपर रहनेवाले मनुष्योंको नानाप्रकारके रखोंकी प्राप्ति होती है तथा उनरोंकी सहायतासे वे धनिक हो जाते हैं और उनको दरिद्रतासे पैदाहुआ दुःख कुछ भी नहीं सतासक्ता उसीप्रकार जो मुनि सदा अपनी आत्माका चिंतन करनेवाले हैं उनको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूपी रनों की प्राप्ति होती है तथा उनरलोंकी प्राप्ति होनेपर उनको किसीप्रकारकी नरकआदि गतियोंमें नहीं
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